SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 602
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८० तत्वार्यसूत्रे मूलम्-अट्टहिं मयहाणेहिं नीया गोयकम्मं ॥ सूत्र ९॥ छाया—अष्टभिर्मदस्थानैर्नीचैर्गोत्रकर्म ॥ सूत्र ९ ॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्रे चतुस्त्रिंशत्प्रकारकाणां नरकगत्याघशुभनामकर्मणां बन्धहेतुतया कायादियोगवक्रता-विसंवादनादयः प्ररूपिताः सम्प्रति क्रमप्राप्तस्य नीचैर्गोत्रस्य कर्मणो बन्धहेतून् प्ररूपयितुमाह-"अट्ठहिं मयहाणेहिं" इत्यादि । ____अष्टभिः-अष्टसंख्यकैः मदस्थानैः मदानां अहङ्कालरूपाणां स्थानानि आश्रयरूपाणि मदस्थानानि तैः नीचेर्गोत्रकर्मणो बन्धो भवति, तानि मदानि, जाति- कुल-बल-रूप-तपः श्रुतिलाभैश्वर्यरूपाणि भवन्ति, एतैः कारणभूतैर्नीचैर्गोत्रकर्मबन्धो भवतीति भावः ॥ सूत्र-९॥ तत्वार्थनियुक्तिः-पूर्व द्वयधिकाशीतिप्रकारकपापकर्मसु क्रमशः पञ्चज्ञानावरणनवदर्शनावरणमिथ्यात्वषोडशकशाय, नवनोकषायनारकायुष्यनरकगत्यादिचतुस्त्रिंशत् प्रकारा-ऽशुभनामकर्मणां बन्धहेतवः प्रतिपादिताः संम्प्रति-क्रमप्राप्तस्य नीचैर्गोत्रस्य कर्मणो बन्धहेतून् प्रतिपादयितुमाह "अहहिं मयट्ठाणेहिं" इत्यदि० । अष्टभिः अष्टसंख्यकैः जातिमदादिभिर्मदस्थानैः मदानाम् अहङ्काराणां स्थानानि आश्रयभूतानि, तै; कारणभूतैर्नीचे गोत्रं कर्म बध्यते, तानि-जाति - कुल-बल-रूप-तपः-श्रुत-लाभैश्वर्य विषयाणि भवन्ति, तत्र जातिमदेन अहं सर्वोत्तमजातीयः, इत्येवं जात्यहंकारेण १, कुलमदेन 'अहिं मयहाणेहि नीया' इत्यादि ॥सूत्र-९॥ सूत्रार्थ—आठ प्रकार के मदस्थानों से अर्थात् मदकारणों से नीच गोत्र का बन्ध होता है। तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्रमें चौतीस प्रकार के नरक गत्यादि अशुभकर्म के बन्ध के हेतु रूप से कायादियोंगों की वक्रता तथा बिसंवादनादि की प्ररूपणा की गई है । अब क्रमप्राप्त नीच गोत्र कर्म बन्ध के कारणों को कहते हैं-'अट्टहि मयट्ठाणेहि, इत्यादि । अष्ट प्रकार के मदस्थानों से अर्थात्-जाति, कुल, बल, रूप, तप, श्रुत, लाभ और ऐश्वर्य, इन आठों के विषय में अहङ्कार करने से नोच गोत्रकर्म का बन्ध होता है ॥९॥ तत्त्वार्थनियुक्ति--पूर्व सूत्रमें बयासी प्रकार के पाप कर्मों में क्रम से पांच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, नौ नो कषाय, नरकायु नरक गति आदि चौतीस प्रकार के अशुभ नाम कर्म के बंध के कारणों का प्रतिपादन किया, अब यहां क्रम प्राप्त नीच गोत्र कर्म बंध के कारणों का प्रतिपादन किया जाता है-“अट्ठहिं मयहाणेहिं" इत्यादि आठ प्रकार के जाती मद आदी मदस्थानों से अर्थात् जाति आदि आठों के विषय में अहंकार करने से नीच गोत्र कर्म का बन्ध होता है । वे आठ इस प्रकार हैंजाती, कुल, बल, रूप, श्रुत, लाभ और ऐश्वये । जसे-जातिमदसे-मैं सब से मातृपक्षरूपजाती में ऊँचा हूँ, इस प्रकार जाति सम्बन्धी अहंकार से १ कुल मदसे मेरा पितृपक्ष શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy