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________________ ५७८ तत्त्वार्यसूत्रे तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्वं तावत्-नारकायुष्यस्य पापकर्मणो बन्धहेतुतया बहारम्भबहुपरिग्रहपञ्चेन्द्रियवधकुणिमाहाराः प्रतिपादिताः सम्प्रति-क्रमप्राप्तस्य नरकगत्यादिचतुस्त्रिंशत्प्रकारकाऽशुभनाकर्मणां बन्धहेतुतया योगवक्रता विसंवादनादिकं प्रतिपादयितुमाह-जोगवक्कत्तविसंवायणेहिय अमुभनामकम्मं-" इति । योगवक्रत्वविसंवादनाभ्याञ्चाऽशुभनाम कमबध्यते । __ तत्र-कायवाङ्मनोलक्षणत्रिविधयोगगतं वक्रत्वम्-कुटिलतया प्रवृत्तिः, स्वगतयोगता योगवक्रतोच्यते। विसंवादनन्तु-अन्यथा प्रवर्तनम् सत्यवदभ्युपगमे तदपहूवोपाये व्युत्थापनं परगतं बोध्यम् । तत्र-कायस्य तावत् कुब्ज-वामननिकृष्टाङ्गप्रत्यङ्गावयवनयननिकोचननासिकाभङ्गमलव्याधिविदूषकस्त्रीपुरुषभृत्यभृतकाद्याकारैर सद्भावनरूपा वक्रताऽवसेया । वाग्वक्रता तु मायापूर्वकं जल्पनम् मनोवक्रता पुनः-स्वान्ते-ऽन्यदेवनिश्चित्य लोकसमाजपूजासत्कारादिमिच्छां कुर्वन् वाचा-ऽन्यदेव समाचरति, कायेनाऽन्यदेव चेष्टते इत्येवं रीत्या स्वविषयैव कायादियोगवक्रता बोध्या । विसंवादनं पुनः परविषयमन्यथैव प्रवर्तनरूपम् निर्देष्टुमित्यस्य विवक्षितस्यार्थस्य यथावस्थितस्वभावस्य नैष्फल्यविधानमवसे यम् । पितापुत्रयोर्वा प्रीतिशालिनोः परस्परं प्रीतिभेदोत्पादनं विसंवादनं बोध्यम् । एवं-चकारात् मिथ्यादर्शनमायिकप्रयोगपैशुन्यचञ्चलचित्तता क्टमानतुलाकरण सुवर्णा तत्त्वार्थनियुक्ति—पहले बतलाया जा चुका है कि महा आरंम, महा परिग्रह, पंचेन्द्रिय वध और मांसाहार से नरक की आयु का बन्ध होता है । अब अनुक्रम से प्राप्त नरकगति आदि चौतीस प्रकार के नाम कर्म के बन्ध के कारण कहते हैं--- योगों की वक्रता और विसंवाद करने से अशुभ नाम कर्म का बंध होता है। काय, वचन और मन, ये तीन योग हैं इनकी वक्रता अर्थात् कुटिलता पूर्ण प्रवृत्ति को योग वक्रता कहा गया है । अन्यथा प्रवृत्ति को विसंवाद कहते हैं। योग वक्रता स्वगत होती है, विसंवादन परगत होता है। काय की वक्रता कुब्ज (कुवड़ा), वामन, (वौना), निकृष्ट अंग-प्रत्यंग, नयनों का संकोचन, नासिकाभंग, मल, व्याधि, विदूषक स्त्री-पुरुष, मृतक आदि के आकारों द्वारा अयथार्थ को को प्रकट करना है। कपटपूर्वक बोलना वचन की वक्रता है । चित्त में अन्य बात सोचकर लोक या समाज में पूजा-प्रतिष्ठा या आदर-सन्मान आदि पाने की अभिलाषा से वचन द्वारा कुछ अन्य ही कहना और शरीर से दूसरे ही प्रकार का आचरण करना मन की वकता है। इस प्रकार काय योग आदि की वक्रता स्वविषयक ही होती है। विसंवादन का सम्बन्ध दूसरे के साथ होता है । उस का अर्थ है अन्यथा प्रवृत्ति । जो बात सत्य है उसे असत्य कहकर दिखलाना विसंवाद है । अथवा अत्यन्त स्नेहशील पिता और पुत्र के बीच भेद उत्पन्न कर देना-उन के स्नेह को भंग कर देना विसंवादन कहलाता है। सूत्र में ग्रहण किये हुए'च' पद से मिथ्यादर्शन, मायिक प्रयोग, पैशुन्य, चंचलचित्तता, શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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