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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ५ सू. ८ नरकगत्याद्यशुभनामकर्मणो बन्धहेतुः ५७७ उक्तञ्च स्थानाङ्गे ४ स्थाने ४ उद्देशके "चउहिं ठाणेहिं जीवा जेरइयत्ताए कम्म पकरेंति तं जहा-महारंभयाए महापरिग्गयाए पंचिंदियवहणं कुणिमाहारेणं-" इति । चतुर्भिःस्थानै जीवा नैरिकतायै कर्म प्रकुर्वन्ति, तद्यथा-महारम्भतया, महापरिग्रहतया, पञ्चेन्द्रियवधेन, कुणिमाहारेण, इति ॥७॥ मूलसूत्रम् -"जोगवक्कत्तविसंवायणेहिय असुभनामकम्म-" ॥८॥ छाया--"योमवक्रत्वविसंवादनाभ्यां चाऽशुभनामकर्म" ॥८॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्रे नारकायुष्यस्य पापकर्मणो बन्धहेतवः प्ररूपिताः सम्प्रतिक्रमप्राप्तस्य चतुस्त्रिंशत्प्रकारस्य नरकगत्याघशुभनामकमेणो बन्धहेतून् प्ररूपयितुमाह "जोगवक्कत्तविसंवायणेहिय असुभनामकम्म-" इति । योगवक्रत्व-विसंवादनाभ्यां चा-ऽशुभनामकमें बध्यते । तत्र-योगः शक्तिरूपआत्मनः करणविशेषः कायवाङ्मनोलक्षणस्त्रिप्रकारकः तस्य-वक्रत्वं कौटिल्यप्रवृत्तिः, यथा-कायेनाऽन्यत्करोति, वचसाऽन्यद् ब्रवीति मनसाऽन्यच्चिन्तयति, इत्येवं रूपा योगवक्रता। विसंवादनन्तु अन्यथाप्रवर्तनम् परवञ्चनम्, निष्फलप्रवर्तनम् , चकारेण-मिथ्यादर्शन-पैशुन्य-चञ्चलचित्तता-कूटमान-तुलाकरण-परनिन्दादिश्च गृह्यते, तैः खलु-कायिकादियोगवक्रत्वविसंवादनादिभिर्नरकगत्यादिचतुस्त्रिंशत्प्रकारकाऽशुभनामकर्मबन्धो भवति ॥८॥ स्थानांगसूत्र के स्थान चौथे, उद्देशक चौथे में कहा है--'चार कारणों से नरकामुकर्म का उपार्जन करते हैं--महा आरंभ करने से, महापरिग्रह से, पञ्चेन्द्रिय के वध से और मांस का भक्षण करने से' ॥७॥ सूत्रार्थ--'योगवकत्तविसंवायणे' इत्यादि ॥८॥ योगों की वक्रता और विसंवाद से अशुभ नाम कर्म का बन्ध होता है ॥८॥ तत्त्वार्थदीपिका-पिछले सूत्र में नरकायु पापकर्म के बन्ध के कारणों की प्ररूपणा की गई; अब क्रमप्राप्त चौतीस प्रकार के अशुभ नाम कर्म के बन्ध हेतुओं की प्ररूपणा करते हैं__ योग की वक्रता और विसंवाद से अशुभ नाम कर्म का बन्ध होता है। योग का अर्थ है आत्मा की एक विशेष शक्ति जो करणरूप होती है। उसके तीन प्रकार हैं-मन, वचन, और काय उसकी वक्रता का मतलब है कुटिलता पूर्वक प्रवृत्ति । जैसे मन से कुछ सोचना, वचन से कुछ ओर ही कहना और काय से अन्य ही प्रकार की प्रवृत्ति करना इसे योगवक्रता कहते हैं। विसंवाद का आशय है-अन्यथा प्रवृत्ति करना, दूसरे को ठगना । सूत्र में 'च, पद का जो प्रयोग किया है, उससे मिथ्यादर्शन, पैशुन्य, चंचलचित्तता, झूठा तोलना-नापना, और दूसरों की निन्दा आदि का ग्रहण किया गया है । इन योगवक्रता और विसंवाद आदि कारणों से नरकगति आदि चौतीस प्रकार का अशुभ नाम कर्म बँधता है ॥८॥ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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