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________________ ५६८ तत्वार्थसूत्रे हेतवः प्ररूपिताः सम्प्रति दर्शनमोहनीयप्रकृतिभूतस्य मिथ्यात्वमोहनीयस्य पापकर्मणो बन्धहेतून् प्ररूपयितुमाह "तित्थयरायरियोवज्झाय-इत्यादि । तीर्थकरा ssचार्योपाध्यायकुलगण-संघ-श्रुत धर्मसुरावर्णवादेन तीर्थकृताम् आचार्याणाम् उपाध्यायानां कुलस्य गणस्य, सङ्घस्य श्रमणश्रमणीश्रावकश्राविकासमुदायरूपस्य, श्रुतस्याऽहत्प्रणीतस्य साङ्गोपाङ्गस्याऽऽगमस्य, धर्मस्य पञ्चमहाव्रतसाधनस्य , सुराणाञ्चतुर्विधानां देवानां भवनपति-वानव्यन्तर-ज्योतिष्क-वैमानिकानाञ्चाऽवर्णवादेन निन्दावादेन मिथ्यात्वकर्मबन्धो भवतीति भावः ॥५॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः- पूर्वं ज्ञानावरणीयादि घशीतिप्रकारपापकर्मभोगेषु मत्यादि पञ्च ज्ञानावरण चक्षुरादिनवदर्शनावरणाऽशातावेदनीयपापकर्मणां बन्धहेतवः प्रतिपादिताः सम्प्रति क्रमप्राप्तस्य मिथ्यात्वस्य दर्शनमोहनीस्य पापकर्मणो बन्धहेतून् प्रतिपादयितुमाह-"तित्थयरायरियोवज्झाय-' इत्यादि । तीर्थकरा-ऽऽचार्योपाध्यायकुलगणसंघश्रतधर्मसुराऽवर्णवादेन मिथ्यात्वकर्म बध्यते तत्र तीर्थकराणां सकल ज्ञानावरणक्षयसमुद्भुतसमस्तज्ञेयविषयाऽवबोधलक्षणकेवलज्ञानवताम् अर्हताम् आचा के बन्ध हेतुओं की प्ररूपणा की गई, अब मिथ्यात्व मोहनीय कर्म के वन्ध हेतुओं की प्ररूपणा की जाती है तीर्थकर की आचार्यों की, उपाध्यायों की, कुल की, गण की, संघ अर्थात् श्रमण, श्रमणी, श्रावक और श्राविकाओं के समुदाय की, अर्हन्त भगवान् के द्वारा प्रणीत अंगोपांगसहित आगम की, पाँच महाव्रतों के साधन भूत धर्म की, चारों प्रकार के देवों की अर्थात् भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की निन्दा करने से मिथ्यात्व कर्म का बन्ध होता है ॥५॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-- पहले ज्ञानावरणीय आदि जो बयासी प्रकार के पापकर्म भोग कहे थे, उनमें से मति आदि पाँच ज्ञानावरणीयों, चक्षुदर्शनावरणीय आदि नौ दर्शनावरणीयों और असातावेदनीय पापकर्म के बन्ध के कारणों का प्रतिपादन किया गया है; अब क्रमप्राप्त मिथ्यात्व दर्शनमोहनीय पापकर्म के बन्धहेतुओं का प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं तीर्थंकर, आचार्य, उपाध्याय, कुल गण, संघ, श्रुत, धर्म और देवों का अवर्णवाद करने से मिथ्यात्व कर्म का बन्ध होता है। सम्पूर्ण ज्ञानावरण कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाले और समस्त ज्ञेय पदार्थों को जानने वाले केवलज्ञान से सम्पन्न तीर्थकरों की अर्थात् अर्हन्त भगवन्तों को, आचार्यों की, શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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