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________________ तत्त्वार्थसूत्रे बन्धकारणानि प्रतिपादितानि साम्प्रतं पापतत्वत्वेनाशातावेदनीयकर्मणो बन्धकारणानि विवियते असायावेयणिज्ज' इत्यादि । वेदनीयं कर्म वेद्यते अनुभूयते सुखं दुःखं वा यस्य कर्मण उदयेन तद् बेदनीयम् यद्वा वेदितुम् सुखदुःखत्वेन अनुभवितुं योग्य वेदनीयम् तत् शातावेदनीयम् अशातावेदनीयं चेति द्विबिधं द्विप्रकारकं भवति, तत्र श तावेदनीयं चतुर्थे पुण्यतत्वाध्याये गतम्, अत्र पापतत्त्वप्रकरणाद् अशातावेदनीयं व्याख्यायते-यस्य कर्मण उदयेन जीवस्य अशातम् असुखं दुःखमित्यर्थः उद्भवति तत्कर्म अशातावेदनीयमुच्यते तस्याऽशातायेदनीयस्य कर्मणो बन्धः पर दुःखनतादिभिर्द्वादशभिः कारणैर्भवति । तेन जीवः शरीरमानसीमशातामनुभवति । तत्र तानि कारणानि प्रदर्श्यन्ते, तथाहि-परदुःखनता-परेषां स्वातिरिक्तानां दुःखनं-दुःखोत्पादनम् , परशोचनता-परेषां शोचनं दैन्योत्पादनम् , परजूरणता-परेषां शरीरशोषणकारि शोकोत्पादनम्, परतेपनता-परेषामश्रुपातादिजनक शोकोत्पादनम् परपिट्टनता-परेषां यष्टयादिना ताडनम् परपरितापनता-परेषां शारीरिकमानसिकपरितापोत्पादनम् एवं बहुनां प्राणभूतजीवसत्त्वानां-तत्र-प्राणाः-विकलेन्द्रिया द्वीन्द्रियादितश्चतुरिन्द्रिय बन्ध के कारणों का विवरण किया जाता है-'असायावेयणिज्ज' इत्यादि । जिस कर्म के उदय से सुख दुःख का अनुभव हो वह वेदनीय कर्म कहलाता है, अथवा जो कर्म सुख दुःख के रूप से वेदन करने योग्य हो वह वेदनीय कहलाता है वह वेदनीय कर्म शातावेदनीय अशातावेदनीय के भेद से दो प्रकार का है, जिसमें शालावेदनीय पुण्य प्रकृति जन्य होने से चतुर्थ पुण्यतत्त्व में उसका विवेचन हो चुका हैं। यहां पाप तत्त्व का प्रकरण होने से अशातावेदनीय कर्म की व्याख्या की जाती है। जिस कर्म के उदय से जीव के अशाता अर्थात् दुःख उत्पन्न हो तो वह कर्म अशाता वेदनीय कहलाता है । उस अशाता वेदनीय कर्म का बन्ध परदुःखनता आदि बारह कारणों से होता है जिससे जीव शारीरिक मानसिक अशाता का अनुभव करता है । वे कारण इस प्रकार हैं-परदुःखनता-अपने अतिरिक्त दूसरे को हर प्रकार दुःख पहुँचाना १, परशोचनता-दूसरे को दोनता जनक शोक में डालना २, परजूरणता-दूसरे को जिससे शरीर का शोषण हो ऐसा शोक पहुँचाना ३, परतेपनता-दूसरे को जिससे अश्रुपात और लारे गिरने लगे ऐसा हृदयद्रावक शोक पहुँचाना ४, परपिट्टनता-दूसरे को लाठी आदि से पीटना ५, पररितापनता-दूसरे को शारीरिक और मानसिक संताप पहुँचाना ६, ये छह बोल समुच्चय जीवों को आश्रित करके कहे गये हैं, इसी प्रकार प्राण भूत जीव और सत्वों के विषय में भी इन्हीं छहों का आचरण, करना १२। इस प्रकार इन बारह कारणों से जीव के अशाता वेदनीय कर्म का बंध होता है। वे प्राण भूत जोव सत्त्व की व्याख्या इस प्रकार हैं--- શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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