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दीपिकानियुक्तिश्च अ०५ सू०२
पापकर्मणः फलभोगनिरूपणम् ५५३ माया-कापटयम् , ८ लोभो गृद्धिः-९ रागः आसक्तिः-१० द्वेषोऽप्रीति-११ कलहः-परस्परवैमनस्यकारकशब्दविग्रहः-१२ अभ्याख्यानं-मिथ्याभियोगः, मिथ्या रोपः-१३ पैशुन्यं-परोक्षेदोषसूचनम्-१४ परपरिवादः-परस्य निन्दा, प्रसिद्धा-१५ रत्यरती--प्रीत्यप्रीती-१६ मायामृषाशाठयाऽसत्यम्-१७ मिथ्यादर्शमशल्यम्--तत्त्वार्थाऽश्रद्धान-मायानिदानमिथ्यात्वम्-१८ इति बोध्यम् ॥सूत्र १॥
मूलसूत्रम् -- 'तब्भोगो बासीइभेएणं" ॥२॥ छाया-"तद्भोगो यशीति मेदेन" ॥२॥
तत्त्वार्थदीपिका--पूर्व सूत्रे पापकर्मस्वरूपं प्रतिपादितम् , सम्प्रति-तस्य पापकर्मणो भोगं व्यशीतिप्रकारतया प्रतिपादयितुमाह-"तब्भोगो बासीइभेएणं-" इति ।।
तद्भोगः-तस्य पूर्वोक्तस्वरूपस्याऽष्टादशप्रकारेण बद्धस्य पापकर्मणो भोगः दुःखरूपफलानुभवः, यशीतिभेदेन-यऽधिकाशोति प्रकारतया संभवति, तस्य पापकर्मणः फलभोगसाधनानि ब्यधिकाशीति प्रकाराणि सन्तीति भावः
७-मान-अहंकार-गवे ८-माया-कपट ९-लोभ-गृद्धि १०-राग-प्रेम ११-द्वेष-अप्रीति १२-कलह-पारस्परिक वैमनस्य जनक वोचिक युद्ध १३-अभ्याख्यान-किसी पर झूठा आरोप लगाना १४-पैशून्य-दूसरे की चुगली खाना १५-परपरिवाद-दूसरे की निन्दा करना १६-रत्यरति-संसार-विषयों में राग,, धर्म में अप्रीति, १७-मायामृषा-कपट पूर्वक मिथ्या भाषण करना १८-मिथ्यादर्शनशल्य-कुदेव कुगुरु कुधर्म पर श्रद्धा होना ये शल्य हैं ॥सू.१॥ सूत्रार्थ—'तब्भोगो बासीइभेएणं'-२ पाप का फल बयासी प्रकार से भोगा जाता है ॥२॥
तत्वार्थदीपिकाः-पूर्व सूत्र में पापकर्म के स्वरूप का प्रतिपादन किया गया । अब उसके उपभोग के वयासी प्रकारों का प्रतिपादन करने के लिये कहते हैं
पूर्वोक्त स्वरूप वाले, अठारह प्रकार से बाँधे हुए पाप कर्म का भोग अर्थात् दुःख रूप फल का अनुभव बयासी प्रकार से होता है। अर्थात् पाप के फलभोग साधन वयासी
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧