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________________ तत्त्वार्थ सूत्रे अशुभकर्म - अकुशलकर्म - पापम् अपुण्यं व्यपदिश्यते । तत्र - पं - पङ्किलम्, अर्थात् - मलिनं भावमापयति-प्रापयतीति पापम् । अथवा - पं-क्षेमम् आ - समन्तात् पिबति नाशयतीति पापम् । यद्वा पानं पास्तमर्थात् प्राणिनामात्मानन्दरसपानम् आप्नोति -गृह्णातीति पापम् । अथवानरकादिकुगतिषु जीवान् पातयतीति पापम् । पृषोदरादित्वात्साधुः आत्मानं कमरजोभिः पांशयति मलिनयतीतिवा पापम् इति पापपदव्युत्पत्तिः । ज्ञानावरणीयादिकर्म पापमुच्यते । ५५२ तच्चा - sष्टादशविधं बोध्यम् । प्राणातिपात - १ मृषावाद - २ स्तेय - ३ मैथुन - ४ परिग्रह५ क्रोध - ६ मान - ७ माया -८ लोभ - ९ राग - १० द्वेष - ११ कलहा - १२ ऽभ्याख्यान - १३ पैशून्य - १४ परपरिवाद - १५ रत्यरति - १६ माया मृषा - १७ मिथ्यादर्शनशल्य - १८ भेदात् । तत्र - प्राणातिपातः प्राणव्यपरोपणम्, जीवहिंसेत्यर्थः - १ मृषावादोऽसत्यभाषणम् -२ स्तेयम्-अदत्तादानम् - ३ मैथुनं - स्त्रीसङ्गमः, अब्रह्मचर्य मित्यर्थः - ४ परिग्रहो मूर्च्छा - ममत्व मभिष्वङ्गः-५ क्रोधः– स्वान्तसंज्वलन लक्षणः कषायविशेषः - ६ मानोऽहङ्कारः, गर्व ईतियावत्-७ अशुभ अर्थात् अकुशल कर्म पाप कहलाता है । पाप शब्द की व्युत्पत्ति इस प्रकार हैपं-पंकिल अर्थात् मलिनता को आपयति-जो प्राप्त कराता है, वह पाप अथवा पं-क्षेम को, आ-सब ओर से, पूरी तरह से जो, पिबति - पी जाता है-नष्टकर देता है सो पाप । अथवा पानं-पा अर्थात् प्राणियों के आत्मानन्दरस के पान को जो आमोति - ग्रहण कर लेता है अर्थात् जिसके कारण जीव आत्मानन्द के रसपान से वंचित हो जाते हैं, उसे पाप कहते हैं । अथवा नरक आदि दुर्गतियों को जो प्राप्त करता है वह पाप कहलाता है । या आत्मा को कर्म - रज से जो पांशयति- मलीन करता है, वह पाप है । पाप अठारह प्रकार का है । - ( १ ) अब्रह्मचर्य (५) परिग्रह (६) क्रोध (७) मान द्वेष (१२) कलह (१३) अभ्याख्यान (१४) (१७) मायामृषा (१८) मिथ्यादर्शनशल्य | इसका अर्थ इस प्रकार है, १ -प्रणातिपात - प्राणों का व्यपरोपण नाश करना २ - मृषावाद-असत्य भाषण करना. ३ - स्तेय - - अदत्तादान - चोरी. ४ - अब्रह्मचर्य - मैथुन - कुशील. आसक्ति. ५ - परिग्रह - ममत्व, ६- क्रोध- मन में जलन होना. प्राणातिपात (२) मृषावाद (३) स्तेय (४) (८) माया ( ९ ) लोभ (१०) राग ( ११ ) पैशून्य (१५) परपरिवाद (१६) रति- अरति શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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