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________________ तत्त्वार्थसूत्रे वैमानिकदेवानां प्रत्येकमिन्द्रादिदशभेदान् प्रतिपादयितुमाह "कप्पोववन्नगदेबाणं इंद सामा ७ ५२२ २ ३ ४ ८ यि तायत्तीसग आयरक्ख लोगपालपरिसोवबन्नग अणियाहिवइ पइष्णग आभिजो ९ १० गिय किब्बिसिया दस" इति । कल्पोपपकन्नदेवानाम् इन्द्र - सामानिक - त्रायास्त्रिंशका -ऽऽत्मप्रकीर्णका - ssभियोगिककिल्बिषिका दश देवाः ५ रक्षक—लोकपालपरिषदुपपन्नकाऽनीकाधिपति प्रत्येकं यथायथं भवन्ति । ६ तत्रेन्द्रास्तावत् परमैश्वर्ययुक्ताः सामानिकादिभेदानां नवानामधिपतयः - १ सामानिकास्तु आज्ञैश्वर्य वर्जिता - ssयु०कवीर्यभोगोपभोगादिभिरिन्द्र तुल्या भवन्ति, केवलमिन्द्रत्वरूपपरमैश्वर्यसकलकल्पाधिपतित्वञ्च सामानिकानां नास्ति । अतएवेन्द्रस्य समानस्थाने भवाः सामानिका उच्यन्ते, ते च सामानिकाः अमात्यपितृ गुरूपाध्यायमहत्तरतुल्या भवन्ति २ त्रयस्त्रिंशकाः खलु - मन्त्रिपुरोहित स्थानीया भवन्ति । तत्र - मन्त्रिणो राज्यकार्यभारचिन्तकाः पुरोहितास्तुशान्तिक- पौष्टिकाद्याभिचारिककर्मकारिणो भवन्ति ३ | आत्मरक्षकाः - आत्मनः स्वस्येन्द्रस्य रक्षकाः शिरोरक्षकस्थानीयाः उद्यतायुधा रौद्राः पृष्ठतोऽवस्थायिनो भवन्ति - ४। लोकपालास्तु - लोकान् पालयन्तीति व्युत्पत्त्या - ssरक्षकस्थानीया भवन्ति, तत्रा -ऽऽरक्षकाः स्वविषय (देश) सन्धिरक्षणतत्वराः लोकपाला भवन्ति ५ । परिषदुपपन्नकाः - पारिषद्याः, मित्रस्थानीया करते हैं - कल्पोपपन्नक देवों के इन्द्र, सामानिक त्रायस्त्रिंशक आत्मरक्षक लोकपाल, परिषदुपपन्नक (पारिषद), अनीकाधिपति, प्रकीर्णक आभियोगिक और किल्बिषिक ये दस-दस देव होते हैं । इनका स्वरूप इस प्रकार है (१) इन्द्र-जो परम ऐश्वर्य से युक्त हो और सामानिक आदि नौ का अधिपति हो । सामानिक- जिनका आज्ञा - ऐश्वर्य इन्द्र के समान न हो, परन्तु आयु वीर्य (पराक्रम), भोग उपभोग आदि उस के समान ही हों । तात्पर्य यह है कि इन्द्र शासक होता है-उसकी आज्ञा चलती है, वह सम्पूर्ण कल्प का अधिपती होता है, यह विशेषता सामानिक देवो में नही होती, परन्तु आयु आदि में वे इन्द्र के समान ही होते हैं इन्द्र राजा के सदृश है तो ये उसके अमात्य, पिता गुरु, उपाध्याय या महत्तर के समान हैं ! (३ त्रायशि - ये मंत्री और पुरोहित के सदृश हैं ! ओ राज्य के करते हैं - शासन सूत्र संचालित करते हैं! वे मंत्री कहलाते हैं । शान्ति कर्म वाले पुरोहित कहलाते है । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧ कार्यभार की चिन्ता पुष्टि कर्म आदि करने (४) आत्मरक्षक - जो इन्द्र के रक्षक हों, आयुध तान कर पीछे खड़े रहते हों और रौद्र हों । (५) लोकपाल - जो लोकों का पालन करें वे लोकपाल । इस व्युत्पत्ति के अनुसार ये आत्म रक्षक स्थानीय होते हैं ! आरक्षक वे कहलाते हैं जो देश की सम्धियों सीमाओं की रक्षा करते हैं (६) पारिषद्य - मित्रों के समान, सभासदों के सदृश ।
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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