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________________ ५०२ तत्त्वार्थसूत्रे अट्ठविहा, किण्णर- किंपुरिस - महोरग-गंधव्व जक्ख - रक्खस-भूय - पिसायभेदा-" इति वानव्यन्तराः -- वने भवाः वानाः विविधानि देशान्तराणि निवासा येषां ते व्यन्तराः, वानास्ते व्यन्तराः वानव्यन्तराः वानव्यन्तरा देवयोनिविशेषा अष्टविधाः प्रज्ञप्ताः, किन्नर - किम्पुरुष - महोरग-गन्धर्व-यक्ष-राक्षस - भूत-पिशाचभेदात् । अयं क्रमः प्रज्ञापनासूत्रोक्तः " उत्तराध्ययनेत्वयं क्रमः- -' वाणमंतरा अट्ठविहा, - पिसाय - भूय - जक्ख - रक्खस-किर-- किंपुरिस - महोरग - गंधव्व - भेदा - " इति । एतेषाञ्चाष्टानां देवानां पिशाचादि स्व स्वनामकर्मोदय विशेषवशात् पिशाचादिसंज्ञाव्यपदेशो भवति । एतेषामावासाः - अस्या रत्नप्र. भायाः पृथिव्याः सहस्रयोजनबाहल्यस्य रत्नमयस्य काण्डस्योपरि- एकं योजनशतमवगाह्या - धश्चक योजनशतं वर्जयित्वा मध्येऽष्टसु योजनशतेषु तिर्यग् - असंख्यातसहस्रा भौमेया नगरावासाः सन्ति। ते खलु-भ - भौमेया नगरावासाः बहिर्वृत्ताः अन्तश्चतुरस्राः अधस्तात् पुष्करकर्णिका संस्थानाः सन्ति । तत्रैते - वानव्यन्तरा वसन्तीति ॥ १८ ॥ तत्त्वार्थनिर्युक्तिः – पूर्वं तावत् - भवनपतिदेवा असुरकुमारादि दशविधा विशेषतः प्ररूपि - ताः सम्प्रति-क्रमप्राप्तानां - वानव्यन्तराणां विशेषतो अष्टभेदान् प्ररूपयितुमाह - " वाणमंतरा अट्ठवानव्यन्तर देव आठ प्रकार के हैं - ( १ ) किन्नर ( २ ) किम्पुरुष ( ३ ) महोरग (४) गंधर्व (५) यक्ष (६) राक्षस (७) भूत और (८) पिशाच । जो वन में हों वे 'वान' कहलाते हैं और जो विविध देशान्तरों में निवास करते हो व्यन्तर कहलाते हैं । वान जो व्यन्तर है, उन्हें वानव्यन्तर कहते हैं । यह एक प्रकार की देवयोनि है । ये आठ प्रकार के होते हैं - किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत, और पिशाच । यहाँ जिस क्रम का उल्लेख किया गया है वह प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार है । उत्तराध्ययन सूत्र का क्रम इस प्रकार है - वानव्यन्तर देव आठ प्रकार के हैं-पिशाच, भूत, यक्ष राक्षस किन्नर, किम्पुरुष, महोरग और गन्धर्व । इन आठों प्रकार के देवों की जो पिशाच आदि संज्ञाएँ हैं, वे अपने अपने नाम कर्म के उदय विशेष से समझनी चाहिए । वानव्यन्तरों के आवास - इस रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के ऊपर सौ योजन अवगाहन करके और नीचे भी एकसौ योजन छोड़कर बीच में आठसौ योजन में तिर्छे असंख्यात हजार भौमेय नगरावास है वे नगरावास बाहर से गोल, भीतर से चतुष्कोण और नीचे से पुष्कर की कर्णिका के आकार के हैं । इन नगरावासों में वानव्यन्तर देव निवास करते है ॥ १८ ॥ तत्वार्थनियुक्ति —– पूर्वसूत्र में भवनपति देवों के दस विशेष भेद कहेगाये हैं अब क्रम प्राप्त वानव्यन्तर देवों के आठ विशेष भेदो की प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं - वानव्यन्तर देव શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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