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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ४ सू. १५ पञ्चव्रतधारिणां भावनान्तरनिरूपणम् ४८३ "साणुक्कोसयाए-" सानुक्रोशतया, इति । आचाराङ्गप्रकरणे श्रुतस्कंधे ८ अध्ययने ७उद्देशे ५-गाथायाञ्चोक्तम्-" "मज्झत्थो निज्जरापेही-समाहिमनुपालए" इति ।। 'मध्यस्थो निर्जरापेक्षी-समाधिमनुपालयेत्' इति ॥१४॥ मूलसूत्रम् -"संवेगणिव्वेयणटुं जगकायसभावा य-" ॥१५॥ छाया-"संवेगनिर्वेदार्थ जगत्कायस्वभावौ-' ॥१५॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्रे प्राणातिपातादिविरमणलक्षणव्रतस्थैर्यार्थं पञ्चव्रतसाधारणतया मैत्री कारुण्यमुदितोपेक्षाभावना प्ररूपिताः सम्प्रति- तस्यैव पूर्वोक्तपञ्चव्रतस्य स्थिरतार्थ पञ्चव्रतसाधार णतयैव भावनां प्ररूपयितुमाह "संवेगणिव्वेयणत्थं जगकायसभावा य” इति । संवेगनिर्वेदार्थम् संसारभीरुत्वलक्षणसंवेगार्थम्, वैराग्यलक्षणनिर्वेदार्थञ्च यथाक्रमं जगत्काय-स्वभावौ च, संसारलक्षणजगत्-स्वभावशरीरलक्षणकायस्वभावञ्च भावयेत्, भूयो भूयः परिचिन्तयेत् । तत्र-जगत्पदार्थस्तावत् तांस्तान् देवमानुषतिर्यङ्नारकपर्यायान् अत्यन्तं गच्छति प्राप्नोतीति जगत् प्राणिनिवहःप्रकरण में कहा है-'साणुक्कोसयाए' अर्थात् दया युक्त होकरके । ____ आचारांगसूत्र के, प्रथम श्रुतस्कंध में, आठवें अध्ययन के सातवें उद्देशक की पाँचवीं गाथा में कहा है---'अनगार मध्यस्थ-समभावी होकर तथा केवल कर्मनिर्जरा की ही इच्छा करता हुआ समाधि का पालन करे । ॥१४॥ सूत्रार्थ-'संवेगणिव्वेयणटुं' इत्यादि सूत्र-१५ संवेग और निर्वेद की वृद्धि के लिए जगत् के और शरीर के स्वभाव का चिन्तत करना चाहिए ॥१५॥ तत्त्वार्थदीपिका--इससे पहले के सूत्र में अहिंसा आदि व्रतों की स्थिरता के लिए सामान्य रूप से अर्थात् सभी व्रतों के लिए समान रूप से उपयोगी मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ्य भावनाओं का कथन किया गया, अब उन्हीं पाँचों महाव्रतादिकी दृढ़ता के लिए समान रूप से उपयोगी अन्य भावनाओं का निरूपण करते हैं संवेग और निर्वेद के लिए संसार के और शरीर के स्वभाव का विचार वार-वार करना चाहिए । संसार से भयभीत होना संवेग है और विषयों से विरक्ति होना निर्वेद है। इन दोनों को वृद्धि और पुष्टि के लिए अनुक्रम से संसार और शरीर के स्वभाव का चिन्तन करना चाहिए अर्थात् जगत् के स्वभाव का पुनः पुनः चिन्तन करने से संवेग की वृद्धि होती है और काय के स्वरूप का विचार करने से वैराग्य की वृद्धि होती है । विभिन्न मनुष्य तिर्यच नारक और देव पर्यायों को जो गमन करता अर्थात् प्राप्त होता रहता है, उसे जगत कहते हैं। इस व्युत्पत्ति के अनुसार जगत् का अर्थ है-जीवसमूह । अथवा શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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