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________________ ४८२ तत्त्वार्यसूत्रे च्छिन्नं कारुण्यं भावयेत्, तथाविधं कारुण्यं भावयंश्च मोक्षोपदेशदेशकालापेक्षवस्त्राऽन्नपानप्रतिश्रयौ-षधादिभिस्ताननुगृह्णीयादिति । अविनेयेषु शठेषु जनेषु माध्यस्थ्यम् औदासीन्यम्-उपेक्षां भावयेत् । तत्र–विनीयन्ते शिक्षां ग्राहयितुं शक्यन्ते ये ते विनेया शिक्षाः ये न तथा भवन्ति तेऽविनेयाः शिक्षाऽनहीं उच्यन्ते । चेतना-अपि काष्ठ कुड्या-ऽश्मसन्निभाः ग्रहण-धारणेहा-ऽपोहशून्याः मिथ्यादर्शनाभिभूता दुष्टजनविप्रलब्धा उच्यन्ते, तेषु-औदासीन्यं भावयेत्, तेषु-सदुपदेशादिकं शुद्धबीजमिवो-घरभूमिषूप्तं न किमपि फलाधायकं भवति, तस्मात्तेषु-उपेक्षैव कर्तव्येति भावः । तथाचोक्तम् परहितचिन्तामैत्री-परदुःखनिवारणं तथा करुणा- । परसुखतोषो मोदः-परदोषोपेक्षणमुपेक्षा ॥१॥ इति __उक्तञ्च सूत्रकृताङ्गे प्रथमश्रुतस्कन्धे १५–अध्ययने ३-गाथायाम्---"मित्तिं भूएहिं कप्पए-" मैत्री भूतेषु कल्पयेत् इति ।। एवम्-औपपातिके १-सूत्रे २०-प्रकरणे चोक्तम् "मुप्पडियाणंदा-" सुप्रत्यानन्दाः इति । पुनस्तत्रैवोपपातिके भगवदुपदेशे चोक्तम्करनी चाहिए । करुणाभाव धारण करके उन्हें मोक्ष का उपदेश देना चाहिए तथा देश और काल के अनुसार वस्त्र, अन्न, पानी, स्थान, औषध आदि देकर उनका अनुग्रह करना चाहिए । अविनीत हैं-शठ है, ऐसे लोगों के प्रति उदासीनता का भाव धारण करना चाहिए । जिन्हें शिक्षा दी जा सकती हो, जो उनके योग्य हों, वे विनीत कहलाते हैं । जो शिक्षा के भी योग्य न हो वे अवीनीत हैं । वे चेतन होने पर भी लक्कड़ या दीवार के समान जड होते हैं । ग्रहण, धारण ईहा, अपोह से शून्य, मिथ्यात्व से गुप्त और दुष्टों द्वारा बहकाये होते हैं । ऐसे लोगों पर भी द्वेष न धारण करते हुए उदासीनता रखना चाहिए । ऊपर भूमि में बोया हुआ शुद्ध बीज भी जैसे फलवान नहीं होता' उसी प्रकार ऐसे लोगों को दिया हुआ सदुपदेश सफल नहीं होता । अतएव उनके प्रति उपेक्षा रखना ही उचित है कहा कभी है-'परहित चिन्ता मैत्री' इत्यादि । दूसरों के हित का चिन्तन करना मैत्री है, दूसरों के दुःख का निवारण करना करुणा है, दूसरों का सुख देखकर सुखी होना प्रमोद है और दूसरों के दोषों की उपेक्षा करना माध्यस्थ्य है । सूत्रकृतांगसूत्र के प्रथम श्रुतस्कंध के १५ वें अध्ययन में, तीसरी गाथा में कहा है'प्राणिमात्र पर मैत्रभाव धारण करना चाहिए ।' ___ औपपातिकसूत्र के प्रथम सूत्र के वीसवे प्रकरण में कहा है-'मुप्पडियाणंदा' अर्थात् दूसरों के सुख को देखकर आनन्द का अनुभव करना चाहिए ।' इसी सूत्र में भगवान् के उपदेश के શ્રી તત્વાર્થ સૂત્રઃ ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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