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________________ ४६४ तत्त्वार्थस्त्रे तत्र तावद्-ईरणं गमनम् इर्या, तस्यां समितिः-सङ्गतिः श्रुतरूपेणा-ऽऽत्मनः परिणतिः, तदुपयोगेन पुरस्तात् युगमात्रया दृष्टया स्थावरजङ्गमानि भूतानि परित्यजन् अप्रमत्तः सन् गच्छेदित्यादिरूपो विधिरीर्यासमितिरुच्यते मनोगुप्तिश्च-मनसो रक्षणम्, आर्तरौद्रध्यानाऽप्रचारःधर्मध्याने उपयोगश्च-२ बचोगुप्तिश्च-एषणासमितिरूपा-३ एषणा च-त्रिविधा, गवेषणा–१ ग्रहण-२ ग्रास-३ भेदात् । तस्यामेषणायामसमितस्य षण्णामपि कायानामुपधानापत्तिः स्यादतस्तत्संरक्षणार्थं सकलेन्द्रियोपयोगलक्षणा एषणा समितिः कर्तव्या-४ आदाननिक्षेपणासमितिस्तु-औधिको-१ पग्रहिक-२ भेदेन द्विविधस्योपधेर्ग्रहण-स्थापनलक्षणयोरादान-निक्षेपणयोरागमानुसारेण प्रत्यवेक्षण-प्रमार्जनरूपा समितिरुच्यते- ५ ___ आलोकितपानभोजनन्तु-प्रतिगृहं पात्रमध्यपतितपिण्डस्य चक्षुरादुपयोगेन तत्समुत्थागन्तुकसत्त्वसंरक्षणार्थ प्रत्यवेक्षणं कर्तव्यम् , उपाश्रयमागन्य च पुनरपि प्रकाशयुक्ते प्रदेशे स्थित्वा । पानभोजनं सुप्रत्यवेक्षितं कृत्वा प्रकाशप्रदेशावस्थितेन वल्गनं कर्तव्यमिति बोध्यम् , इत्येवं रीत्या-एताःपञ्चभावनाः पुनः पुनर्भावयन् वासयन् बाहुल्येन सम्पादयन् समस्तान्यप्राणातिपातलक्षणामहिंसां ईर्यासमिति है, तात्पर्य यह है कि उपयोग के साथ चार हाथ भूमि को देखते हुए, स्थावर और त्रस जीवों को बचाते हुए अप्रमत्त होकर गमन करना चाहिए । मनोगुप्ति मन की रक्षा करना । आतध्यान और रौद्रध्यान न होने देना, धर्मध्यान में मनको लगाना। (३) वचनगुप्ति वचन का निरोध करके मौन धारण करना या आवश्यकता होने पर सोच विचार कर हित मित भाषण करना । (४) एषणासमिति-शुद्ध आहार आदि की गवेषणा करना एषणा तीन प्रकार की हैगवेषणा ग्रहणैषणा ग्रासैषणा जो एषणामें यतनावान् नहीं होता, वह छह काय के जीवों का घात करता है, अतएव उससे बचने के लिए सब इन्द्रियों से उपयोग लगा कर एषणासमिति का पालन करना चाहिए। (५) आदाननिक्षेपणासमिति साधु वेश औधिक-और औपग्रहिका कारण परने पर जो लिया जाय दोनों प्रकार की उपधि के रखने और उठाने में यतना करना अर्थात् आगमोक्त विधि से उसका प्रतिलेखन करके एवं प्रमार्जन करके रखना उठाना चाहिए। अथवा आलोकितपानभोजन --- प्रत्येक घर में पात्र में पड़े हुए आहार को नेत्रों द्वारा देख लेना चाहिए जिससे उसमें उत्पन्न हुए या इधर-उधर से आये हुए जीवों की रक्षा हो । उपाश्रय में आकर प्रकाश. युक्त स्थान में स्थित होकर पुनः भोजन-पानी को अच्छी तरह से देख लेना चाहिए और प्रकाशयुक्त स्थान में ही उसका सेवन करना चाहिए । इन पाँच भाव શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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