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दीपिकानियुक्तिश्च अ० ४ सू १२.
पञ्चविंशतिर्भावनानिरूपणम् ४६३ तत्स्थैर्यार्थम् ईर्यादिकाः पञ्चविंशतिर्भावना भावनीयाः, तेषां पूर्वोक्तस्वरूपाणां सर्वतः प्राणातिपातविरमणादिलक्षणानां पञ्चमहाव्रतानां, देशतः प्राणातिपातादिविरतिलक्षणाऽणुव्रतानाञ्च स्थैर्यार्थ दृढतासम्पादनार्थम् ईर्यासमितिः--१ आदिपदेन-मनोगुप्तिः-२ वचोगुप्तिः-३ एषणा-४ आदाननिक्षेपणा-५ आलोच्यसम्भाषण–६ क्रोधप्रत्याख्यान–७ लोभप्रत्याख्यान-८ भयप्रत्याख्यान -९ हास्यप्रत्याख्यान-१० अष्टादशविधविशुद्धवसतेर्याचनापूर्वकं सेवनम्-११ प्रतिदिनमवग्रहयाचित्वा तृणकाष्ठादिग्रहणम्-१२ पीठफलकाद्यर्थमपि वृक्षादीनामच्छेदनम्-१३ साधारणपिण्डस्याऽधिकतो न सेवनम्-१४ साधुवैयावृत्त्यकरणञ्च-१५ स्त्री-पशुनपुंसकसंसक्तशयनाऽऽसनवर्जनम्-१६ रागयुक्तस्त्रीकथावर्जनम्-१७ स्त्रोणां मनोहरेन्द्रियदर्शनवर्जनम्-१८ पूर्वरताऽनुस्मरणवर्जनम्-१९ प्रतिदिनं भोजनरित्यागश्च२०
मनोज्ञा-ऽमनोज्ञस्पर्श-२१ रस-२२ गन्ध-२३ वर्ण-२४ शब्दानां-२५ रागद्वेषवर्जनञ्चइत्येवं पञ्चविंशतिर्भावना भावनीयाः । तत्र-प्रथमाः पञ्चभावनाः इर्यासमितेः [प्राणातिपातविरतेः द्वितीयाः पञ्चभावना असत्यविरतेः तृतीयाः पञ्चभावनाः स्तेयविरतेः, चतुर्थ्यः पञ्चभावनाः ब्रह्मचर्यस्य, पञ्चम्यः पञ्चभावनाः परिग्रहविरतेरवगन्तव्याः ।
उन पूर्वोक्त व्रतों को स्थिर रखने के लिए इंर्या आदि पच्चीस भावनाएँ करनी चाहिए
सर्वथा प्राणातिपातविरमण आदि पाँच महाव्रतों को तथा एकदेश प्राणातिपातविरमण सूप अणुब्रतों की स्थिरता-दृढता के लिए निम्नलिखित भावनाओं का सेवन करना चाहिए
(१) ईर्यासमिति (२) मनोगुप्ति (३) वचनगुप्ति (४) एषणा (५) आदाननिक्षेपण (३) आलोच्यसंभाषण-सोच-विचार कर बोलना (७) क्रोध का त्याग (८) लोभ का त्याग (९) भय का त्याग (१०) हास्य का त्याग (११) अठारह प्रकार से विशुद्ध वसति (स्थान) का सेवन (१२) प्रतिदिन अवग्रह की याचना करके तृण काष्ट आदि को ग्रहण करना (१३) पीठ-फलक आदि के लिए भी वृक्ष आदि का छेदन न करना (१४) साधारण पिण्ड का अधिक सेवन नहीं करना (१५) साधुओं की सेवा करना (१६) स्त्री पशु और पंडक (नपुंसक-हिज़ड़ा) के संसर्ग वाले शयन आसन स्थान का सेवन न करना (१७) रागपूर्वक स्त्रियों की कथा न करना (१८) स्त्रियों की मनोहर इन्द्रियों का अवलोकन न करना (१९) पूर्वमुक्त भोगों का स्मरण न करना (२०) प्रतिदिन गरिष्ठ भोजन का त्याग करना (२१-२५) मनोज्ञ स्पर्श रस गन्ध वर्ण
और शब्द में राग और अमनोज्ञ स्पर्श आदि में द्वेष न करना। यह पच्चीस भावनाएँ है । इनमें प्रारंभ की पाँच प्राणातिपातविरति की हैं । दूसरी पाँच असत्यविरमणमहाव्रत की तीसरी पाँच अदत्तादानमहाव्रत की, चौथी पाँच ब्रह्मचर्यमहाव्रत की और अन्तिम पाँच परिग्रहपरित्यागमहाव्रत की हैं इनका स्पष्टीकरण इसप्रकार है (१) ईर्यासमिति-ईर्या का अर्थ है गमन करना । गमन में समिति अर्थात् संगतता या शास्त्र के अनुसार प्रवृत्ति होना
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧