SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 473
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ ४ सू. ८ तीर्थकरत्वशुभनामकर्मबन्धनिरूपणम् ४५१ "तंजहा-अरहंत-१ सिद्ध-२ पवणय-३ गुरु-४ थेर-५ बहुस्सुए-६ तवस्सीमु-७ वच्छल्लयाइ-८ तेसिं अभिक्खणं णाणोवओगे य- ॥१॥ दंसण-९ विणए-१० आवस्सए य-११- सीलव्वए निरइयारं-१२ खणलव-१३ तव-१४ च्चियाए-१५ वेयावच्चे-१६ समाहीय-१७ ॥२॥ अप्पुव्वणाणगहणे-१८मुयभत्ती-१९ पक्यणे पभावणया २० । एएहिं कारणेहिं तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥३॥ इति ॥ सू०-५ ॥ "अर्हत् सिद्धप्रवचन गुरुस्थविरबहुश्रुततपस्विषु । वत्सलता च तेषाम् अभीक्ष्णं ज्ञानोपयोगश्च ॥१॥ "दर्शनविनयावश्यकञ्च शीलव्रतनिरतिचारः। क्षणलवतपश्चर्या वेयावृत्त्यं समाधिश्च ॥२॥ "अपूर्वज्ञानग्रहणं श्रुतभक्तिः प्रवचनप्रभावना । एतैः कारण स्तीर्थकरत्वं लभते जीवः ॥ ३१ ॥ इति ॥ गाथात्रयेण संसूचितानि विंशतिस्थानकानि यथा-वत्सलता-अर्हत्-सिद्ध-प्रवचनगुरु-स्थविर–बहुश्रुततपस्विषु वत्सलता, भक्तिः-यथाऽवस्थितगुणग्रामोत्कीर्तनरूपा १-७ ज्ञानोपयोगः-एतेषामर्हदादीनामेव ज्ञानेऽभीक्ष्णं पुनःपुनरूपयोगः इत्यष्टस्थानानि दर्शन-सम्यक्त्वं परमप्रकृष्टा दर्शनविशुद्धि स्तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणा, दर्शनं दृष्टिस्तत्त्वविषया रुचिः प्रीतिः जीवादिषु प्रत्ययावधारणरूपा, क्षायोपशमिकोपशमिकक्षायिकाणां सम्यग्दर्शनानां यथायोग्यं नानाप्रकारिकाशुद्धिविशुद्धिस्तीर्थकरनामकर्मणो हेतुः । विनयः-विनयपदेन विनयसम्पन्नता गृह्यते, तत्र विनीयतेऽष्टप्रका (१) अरिहंत (२) सिद्ध (३) प्रवचन (४) गुरु (५) स्थविर (३) बहुश्रुत और (८) तपस्वी पर वत्सलता रखना उनके ज्ञान-प्रवचनमें उपयोग रखना (९) सम्यत्तव (१०) विनय (११) आवश्यक (१२) निरतिचार शीलों और व्रतों का पालन (१३) क्षणलव (१४) तप (१५) त्याग (१६) वैयावृत्य (१७) समाधि (१८) अपूर्वज्ञानग्रहण (१९) श्रुतभक्ति और प्रवचनप्रभावना; इन वीस कारणों से जीव तीर्थकरत्व प्राप्त करता है ।।१-३॥ ज्ञातासूत्र की इन तीन गाथाओं में वीस स्थानों का निर्देश किया गया है । इसके अनुसार (१-७) अहत्, सिद्ध प्रवचन, गुरु, स्थविर, बहुश्रुत और तपस्वी पर वात्सल्य होने से तथा इसकी भक्ति अर्थात् यथावस्थित गुणों का कीर्तन करने से (८) ज्ञानोपयोग-इसके ज्ञान-प्रवचनमें निरन्तर उपयोग लगाये रखना । ९ दर्शन अर्थात् अत्यन्त उत्कृष्ट दर्शनविशुद्धि-निरतिचार सम्यक्त्व की निर्मलता से-क्षयोपशमिक, क्षायिक अथवा औपशमिक सम्यग्दर्श की यथायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धि होने से, (१०) विनयसम्पन्नता-से जिसके द्वारा आठ प्रकार के कर्म हटाये जाएँ वह विनय है । उसके चार भेद શ્રી તત્વાર્થ સૂત્રઃ ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy