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________________ ४५० तत्त्वार्थसूत्रे भव्येभ्यः प्रव्रज्यादानम् भवकूपपतत् संसारार्णवनिमग्नप्राणिजातत्राससमाश्वासनपरायणं जिनशासनमहिमोपबृंहणम् समस्तस्य जगतो जिनशासनरसिककरणम्, मिथ्यात्वतिमिरापहरणम् चरणकरणशरणीकरणञ्च, २० इत्येतानि विंशतिस्थानकानि सर्वजीवसाधारणानि तोर्थकरत्वशुभनामकर्मबन्धहेतुभूतानि सन्ति एतैर्विशतिस्थानकैजीवस्तीर्थकरत्वं लभते इतिभावः । स्थीयतेऽस्मिन्निति स्थानम्, अधिकरणे ल्युटू । स्थित्याधारभूतं कारणमित्यर्थः तथाच अर्हदादि वत्सलतादीनि विंशतिस्तीर्थकरत्वप्राप्तिः स्थानानि कारणानि सन्तीति भावः ॥ ८ ॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्व सामान्यतोऽविसंवादनकायवचो मनोयोगऋजुतादीनां मनुष्यगत्यादिसप्तत्रिंशत्प्रकारकशुभनामकर्मबन्धहेतुत्वेन प्ररूपणेऽपि, अनन्तानुपमप्रभावस्याचिन्त्यविभूतिविशेषकारणस्य त्रैलोक्यातिशायिनस्तीर्थकरनामकर्मणो विशेषहेतून् प्रतिपादयितुमाह-वीसईठाणाराहणेणं तित्थयरत्तं-” इति । विंशतिस्थानाराधनेन तीर्थकरत्वनामकर्म बध्यते । उक्तञ्च–ज्ञाताधर्मकथाङ्गसूत्रे २५२ पृष्ठे सीखना १९ श्रुतभक्ति-जिनप्रतिपादित आगमों में अनुराग रखना । २० प्रवचनप्रभावना-प्रचुर भव्य जीवों को दीक्षा देना, संसार रूपी कूप में गिरते हुए और संसार-सागर में डूबते हुए प्राणियों के लिए आश्वासन रूप जिनशासन की महिमा बढ़ाना, समस्त जगत् को जिनशासन का रसिक बनाना, मिथ्यात्व-तिमिर को नष्ट करना और मूलोत्तर गुणों को धारण करना । सर्व जीवों के लिए साधारण यह वीस स्थान तीर्थङ्कर नाम कर्म के बन्ध के कारण हैं तात्पर्य यह है कि इन वीस कारणों से जीव तीर्थकरत्व प्राप्त करता है । व्यस्त एकऔर समस्त दोनों रूप से इन्हें कारण समझना चाहिए अर्थात् इनमें से एक कारण के द्वारा भी तीर्थङ्करनाम कर्म बाँधा जा सकता है और अनेक कारणों से भी । किन्तु स्मरण रखना चाहिए कि उत्कृष्टतम रसायन आने पर हो इस महान् सर्वोत्तम पुण्यप्रकृति का बन्ध हो सकता है । यहाँ स्थान का अर्थ वासना है, अतएव पूर्वोक्त अर्हद्वात्सल्य आदि वीस स्थानों का अर्थ वीस कारण समझना चाहिए ॥८॥ तत्त्वार्थनियुक्ति यद्यपि सामान्य रूप से अविसंवादन, काय, वचन और मन की ऋजुता को सँतिस प्रकार के शुभ नाम कर्म के बाद का कारण बतलाया जा चुका है; इन प्रकारों में तीर्थङ्कर प्रकृति का भी समावेश हो जाता है, किन्तु तीर्थङ्कर एक विशिष्ट प्रकृति है । वह अनन्त एवं अनुपम प्रभाववाली, अचिन्त्य आत्मिक एवं बाह्य विभूति का कारण और त्रिलोक में सर्वोत्कृष्ट है; अतएव उसके कारण भी विशिष्ट हैं । इसीलिए उसके विशिष्ट कारणों का पृथक् रूप से निर्देश किया जाता है वीस स्थानों की उत्कृष्ट आराधना से तीर्थङ्करनाम कम का बंध होता है । ज्ञाता धर्मकथांग सूत्र में कहा हैं શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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