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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ४ सू.४ सातावेदनीयकर्मस्वरूपनिरूपणम् ४३९ तत्त्वार्थनियुक्ति:--पूर्वं शुभकर्मरूपं पुण्यं प्रतिपादितम् तस्य च “सुखानुभवलक्षणफलभोगः सातावेदनीयादिद्विचत्वारिंशविधैः कर्मभिः सम्पद्यते इत्यप्युक्तम् । तत्र-प्रथमोपात्तं सातावेदनीयं कर्म प्ररूपयितुमाह-"सायावेयणिज्ज पाणाणुकंपाइएहिं" इति । सातावेदनीय कर्म प्राणानुकम्पादिभिर्हेतुभिर्बध्यते, तत्र प्राणानुकम्पागतादिशब्देन भूतानुकम्पा, जीवानुकम्पा, सत्त्वानुकम्पा, एषां त्रयाणां पदानाम् , तथा एषां चतुर्णा विषये अदुःखनतादीनां षण्णां पदानां च संग्रहो बोध्यः । तत्र प्राणा:- द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः, भूताः-वनस्पतयः जीवा:-पञ्चेन्द्रियाः, सत्त्वाः पृथिव्यप्तेजोवायवः-उक्तञ्च "प्राणा-द्वि त्रि चतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः। जीवाः पञ्चेन्द्रियाः प्रोक्ताः, शेषाः सत्वा उदीरिताः ॥१॥ इति । तेषां तेषु वा अनुकम्पा–कारुण्यं दयाभावः, एषां दुःखेषु दुःखभावना, म्रियमाणेषु मार्यमाणेषु वा तद्रक्षणमित्यादि, समवेदनाऽनुभवनं चेति चत्वारः प्रकाराः ४, तथा एषामेव अदुःखनता १, अशोचनता २, अजूरणता ३, अतेपनता ४, अपिट्टनता ५, अपरितापनता ६, एते षडपि यावत् पदसंग्राह्याःसन्ति, तत्र अदुःखनता-प्राणादीनां दुःखानुत्पादनम् १, अशोचनता-शोकानुत्पादनम् २, अजूरणता-शरीरशोषणजनकशोकानुत्पादनम् ३, अतेपनता-अश्रुपातादिजनकशोकानुत्पादनम् ४, अपिट्टनता यष्ट्यादिभिरताडनम् ५, अपरितापनता-शारीरमानससन्तापानुबयालीस प्रकार से उसके फल का भोग होता हैं, यह भी बतलाया जा चुका है। अब पहले ग्रहण किये हुए सातावेदनीय कर्म की प्ररूपणा करने के लिये कहते हैं __ "सायावेयणिज्ज पाणाणुकंपाइएहिं" इत्यादि । - सातावेदनीय कर्म का प्राणानुकम्पा आदि कारणों से बन्ध होता है । यहाँ प्राणानुकम्पा के साथ लगे हुए आदि शब्द से भूतानुकम्पा, जीवानुकम्पा, सत्वानुकम्पा इन तीन पदों का तथा इन्हीं प्राणभूत जीव सत्त्वों के विषय में अदुःखनता आदि छह पदों का संग्रह समझना चाहिये । वे छह पद इस प्रकार है - अदुःखनता-१ अशोचनता-२ अजूरणता-३ अतेपनता-४ अपिटूनता-५, और अपरितापनता-६, यहाँ प्राण शब्द से द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय, भूतशद्ध से वनस्पतिकाय, जीवशब्द से पञ्चेन्द्रिय और सत्व शब्द से शेष पृथिवी पानी, अग्नि और वायुकाय समझना चाहिये । इसी के विषय में कहा भी है “प्राणा द्वि-त्री -चतुःप्रोक्ता" इत्यादि । इनकी अथवा इनमें अनुकम्पा-करुणा अर्थात् दयाभाव रखना, इनके दुःख में दुःख प्रकट करना, मरते हुए अर्थात् किसी अन्य द्वारा मारे जाते हुए इनका रक्षण करना । तथा इनकी वेदना में समवेदना प्रकट करना अनुकम्पा कहलाती है, इन चार प्रकार की अनुकम्पा से तथा इन्हीं चारों के विषय में अदुःखनता--दुःख नहीं पहुँचाना १, अशोचनता-शोक नहीं पहुँचाना २, अजूणता-जिससे शरीर सुख जाय ऐसा शोक नहीं पहुंचाना ३, अते શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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