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________________ ४३८ तत्त्वार्थस्त्रे मूलसूत्रम्-“सायावेयणिज्जं पाणाणुकंपाइएहि- " ॥४॥ छाया-"सातावेदनीय प्राणानुकम्पादिभिः-" ॥४॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे सातावेदतोयादिद्वाचत्वारिंशद्विधकर्मभिः पुण्यफलभोगो भवतीति प्रतिपादितम्, सम्प्रति-तेषु प्रथमोपात्तं सातावेदनीयं कर्म किं स्वरूपं कश्च तद्धेतु रिति प्ररूपयितुमाह- "सायावेयणिज्ज पाणाणुकंपाइएहिं--" इति । सातावेदनीयं कर्म प्राणानुकम्पादिभिर्भवति, तत्र कर्तुर्भोक्तुश्चात्मनः इष्टमभिमतं मनुजदेवादिजन्मनि शरीरमनोद्वारेण सुखपरिणतरूपमागामिबहुविधमनोज्ञद्रव्यक्षेत्रकालभावसम्बन्धसमासादितपरिपाकावस्थमनेकप्रकारकं यदुदयाद् भवति तत् सातावेदनीयं कर्मोच्यते, तच्च प्राणानुकम्पाभूतानुकम्पा-जीवानुकम्पा-सत्त्वानुकम्पाभिः,तथा प्राणभूतजीवसत्त्वानाम्-अदुःखनता, १ अशो चनता, २ अझूरणता, ३ अतेपनता, ४ अपिट्टनता, ५ अपरितापनता, ६ एभिःषभिश्च एवं दशभिः कारणैर्बध्यते ॥ सू. ४॥ सूत्रार्थ-'सायावेयणिज्जं' इत्यादि सू. ४ प्राणानुकम्पा आदि कारणों से सातावेदनीय कर्म बंधता है ॥४॥ तत्त्वार्थदीपिका-पहले सूत्रमें प्रतिपादन किया गया है कि सातावेदनीय आदि बयालीस प्रकार से पुण्य के फल का भोग होता है। अब यह प्रतिपादन करते हैं कि उन बयालीस भेदों में सर्वप्रथम गिने हुए सातावेदनीय कर्म का स्वरूप क्या है ? और उसका कारण क्या है ? सातावेदनीय कर्म की प्राप्ति प्राणियों की अनुकम्पा आदि कारणों से होती है। उसका फल कर्ता और भोक्ता आत्मा को इष्ट-मनोज्ञ होता है। मनुष्यजन्म या देवादिजन्मों में शरीर और मन के द्वारा सुख-परिणतिरूप होता है। आगामी काल में अनुकूल द्रव्य क्षेत्र काल भाव के निमित्त से उसका मनोज्ञ परिपाक होता है । तात्पर्य यह है कि जिस कर्म के परिपाक से अनुकूल एवं अभीष्ट सुख रूप अनुभूति होती है वह सातावेदनीय कर्म कहलाता है। प्राणियों पर अनुकम्पा करने से, भूतों पर अनुकम्पा करने से, जीवों पर अनुकम्पा करने से, सत्त्वों पर अनुकम्पा करने, तथा प्राणभूत जीव सत्त्वों को अदुःखनता-दुःख नहीं पहुँचाने से १, अशोचनता-शोक नहीं पहुँचाने से २, अजूरणता-शरीर शोषणजनक शोक नहीं पहुँचाने से ३, अतेपनता-अश्रुपातजनक शोक नहीं पहुँचाने से ४, अपिट्टनता-लाठी आदि द्वारा नहीं पीटने से ५, अपरितापनता-शारीरिक मानसिक संताप नहीं पहुँचाने से ६, इस प्रकार चार प्रकार की अनुकम्पा और छ प्रकार की अदुःखनता आदि ऐसे दश कारणों से साता वेदनीय कर्म का बन्ध होता है ॥ ४ ॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पुण्य शुभ कर्म है, यह पहले कहा जा चुका है । साता वेदनीय आदि શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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