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________________ ४३४ तत्त्वार्थस्त्रे ___ तत्त्वार्थनियुक्तिः- पूर्वसूत्रेण क्रमप्राप्तं चतुर्थ पुण्यतत्त्वस्वरूपं प्ररूपितम्, सम्प्रतिपुण्यस्य नवभेदान् प्रतिपादयति- "नवविहे पुण्णे-" इति । नवविधं पुण्यं प्रज्ञप्तम् उक्तञ्च स्थानाङ्गे९-स्थाने३-उद्देशके “णवविहे पुन्ने पण्णत्ते, तंजहा-अन्नपुण्णे-१ पाणपुन्ने-२ वत्थपुन्ने-३ लेणपुन्ने-४ सयणपुन्ने-५ मणपुन्ने-६ वयपुण्णे ७ कायपुन्ने-८ नमोकारपुण्णे-९ इति-। नवविधं पुण्यं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा---अन्नपुण्यम्-पानपुण्यम्-वस्त्रपुण्यम्-लयनपुण्यम्-शयनपुण्यम्-मनःपुण्यम्-वचःपुण्यम्-कायपुण्यम्-नमस्कारपुण्यम्- इति- । तत्र-सुपात्राय योग्यायाऽन्नदानाद् यः खलु तीर्थकरनाम-यशःकीर्तिनामादिपुण्यकर्मप्रकृतिबन्धो भवति तदन्नपुण्यमित्युच्यते । अनुकम्पया यदानम्-तदपि-पुण्यमुच्यते । तत्र यस्य कर्मणः उदयात् दर्शनज्ञानचरणलक्षणं तीर्थ प्रवर्तयति, यति-श्रमण-गृहस्थधर्मञ्चाऽऽक्षेपं संक्षेपं संवेनिर्वेदद्वारेण भव्यजनसंसिद्धये समुपदिशति, सुरासुरमनुजपतिपूजितश्च भवति तत्तीर्थकरनामकर्मेत्युच्यते । एवम्-यशो नाम कीर्तिनामाद्यपि पूर्वोक्तरीत्याऽवगन्तव्यम् । एवम्-सुयोग्यपात्राय कल्पनीयपानदानाद् यस्तीर्थकरनामादि शुभकर्मप्रकृतिबन्धो भवति तत्पानपुण्यं व्यपदिश्यते । एवम्-सुयोग्याय वस्त्रदानादपि तीर्थकरनामादिशुभकर्मप्रकृतिबन्धो भवति तस्माद्-वस्त्र तत्त्वार्थनियुक्ति-पिछले सूत्र में अनुक्रम से प्राप्त चौथे तत्त्व पुण्य के स्वरूप का प्रतिपादन किया जा चुका है। प्रकृत सूत्र में उसके नौ भेदों का प्ररूपण करते हैं पुण्य नौ प्रकार का है । स्थानांगसूत्र के नौवें स्थान के तृतीय उद्देशक में कहा है-पुण्य के नौ भेद कहे हैं। वे इस प्रकार हैं- (१) अन्नपुण्य (२) पानपुण्य (३) लयन पुण्य (४) शयनपुण्य (५) वस्त्रपुण्य (६) मनःपुण्य (७) वचनपुण्य (८) कायपुण्य और (९) नमस्कारपुण्य ।। योग्य सुपात्र को अन्न का दान करने से तीर्थकर नामकर्म, या यशः कीर्ति नाम कर्म आदि पुण्य कर्मों का बन्ध होता है, उसे अन्न पुण्य कहते हैं । अनुकम्पा पूर्वक अन्न का दान देने से भी बँधने वाला शुभ कर्म अन्नपुण्य कहलाता है। जिस कर्म के उदय से दर्शन, ज्ञान और चारित्र रूप तीर्थ की प्रवृत्ति करता है, साधु धर्म और श्रावक धर्म का आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेगनी और निवेदनी धर्मकथाओं द्वारा भव्य जीवों की सिद्धि के लिए धर्म करता है और सुरेन्द्रों असुरेन्द्रों तथा नरेन्द्रों द्वारा पूजित होता है, वह तीर्थंकर नाम कर्म कहलाता है। इसी प्रकार यशः कीर्त्ति नाम कर्म आदि का स्वरूप पूर्ववत् समझ लेना चाहिए । (२) इसी प्रकार सुयोग्य पात्र को कल्पनीय पान (जलादिक) देने से तीर्थकर नाम શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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