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________________ दीपकानियुक्तिश्च अ० ३ सू. २२ प्रदेशबन्धनिरूपणम् ४२३ | असंख्येयेषु-अनन्ताऽनन्तेषु वा भवेषु काय-वाङ्-मनःकर्मयोगविशेषाच्च कर्म भावग्रहणयोग्याः सूक्ष्माः पुद्गलाः, न तु-स्थूलाः एकक्षेत्रावगहिनः स्थितिपरिणताः, न तु-गतिपरिणताः आत्मनो-पादीयन्ते- । एवञ्च-ते खलु ज्ञानावरणाद्यष्टविधर्मप्रकृतिग्रहणयोग्याः सूक्ष्माः पुद्गलस्कन्धाः न तुबादराः अभव्यानन्तगुणाः सिद्धानन्ततमभागप्रमितप्रदेशाः घनाङ्गुलस्याऽसंख्येयभागक्षेत्रावगाहिनः एक-द्वि-त्रि-चतुःसंख्येयाऽसंख्येयसमयस्थितिकाः पञ्चवर्ण पञ्चरस द्विगन्ध चतुःस्पर्श स्वभावाः काय-वाङ्-मनोयोगवशादात्मनाऽऽत्मसात् क्रियन्ते इति भावः ॥ २२ ॥ तत्त्वार्थनियुक्तिः---पूर्वसूत्रे कर्मणामनुभावबन्धः प्ररूपितः, सम्प्रति तेषां सामान्यतः प्रतिपादितमेव विशेषतः प्रदेशबन्धं प्ररूपयितुमाह- "सव्वकम्माणं-" इत्यादि । सर्वकर्मणाम्-ज्ञानावरणाद्यष्टविधकर्मप्रकृतिग्रहणयोग्यपुद्गलानाम् अनन्तानन्ताः प्रदेशाबध्यन्ते, न तु-संख्येयाः, नाऽप्यसंख्येयाः, नाप्यनन्ताः प्रदेशाः । अत्र प्रदेशबन्धशब्दार्थस्तु-इयत्ताऽवधारणम्, कर्मभावपरिणतपुद्गलस्कन्धानां परिमाणपरिच्छेदेनाऽवधारणरूपः प्रदेशबन्ध इति भावः । तथाच–प्रदेशबन्धस्वरूपज्ञानार्थमत्र प्रश्नोत्तरायोग की तीव्रता या मन्दता के अनुसार कार्मण वर्गणा के पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं । वे पुद्गल सूक्ष्म होते हैं, स्थूल नहीं । जिन आकाशप्रदेशों में आत्मप्रदेशों का अवगाहन होता है, उन्हीं आकाशप्रदेशों में रहे हुए वे पुद्गल ग्रहण किये जाते हैं-बाहर (भिन्न क्षेत्र में) रहे हुए पुद्गलों का ग्रहण नहीं होता । स्थित पुद्गल ही ग्रहण किये जा सकते हैं, जो गतिरूप में परिणत हों-गमन कर रहे हों, उनका ग्रहण नहीं होता । उल्लिखित समस्त विशेषताएँ होने पर भी अगर उनकी प्रदेशों की संख्या अभव्य जीवों की समग्र राशि से अनन्तगुणी और सिद्ध जीवों की राशि के अनन्तवें भाग हो तो ही उनका ग्रहण होता है, अन्यथा नहीं । इसी प्रकार वे धनांगुल के असंख्यातवें भाग क्षेत्र में स्थित होने चाहिए; पाँच वर्ण वाले पांच रस वाले दो गन्ध वाले, और चार स्पर्श वाले होने चाहिए । फिर इसकी स्थिति चाहे एक समय की हो, चाहे दो, तीन, चार, संख्यात या असंख्यात समय की हो, । ऐसे पुद्गलों को आत्मा अपने काय, वचन और मन के योग से ग्रहण करता है ॥२२॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-पूर्वसूत्र में कर्मों के अनुभावबन्ध का निरूपण किया गया है । अब सामान्य रूप पूर्वकथित प्रदेश बन्ध का विशेष रूप से प्रतिपादन करते हैं ज्ञानावरण आदि आठ प्रकृतियों के योग्य पुद्गल जो अनन्तानन्त प्रदेशों वाले होते हैं, उन्हीं को आत्मा ग्रहण करता है । संख्यात असंख्यात या अनन्त प्रदेशों वाले पुद्गलों को नहीं ग्रहण करता । कर्मयोग पुद्गलस्कंधों का नियत परिमाण में बँधना प्रदेशबन्ध कहलाता है। प्रदेशबंध શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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