________________
दीपिकानिर्युक्तिश्च अ ३ सू. २१
अनुभावबन्धनिरूपणम् ४२१
परिसमाप्तेः कर्मवेदनालक्षणो रसानुभवो निर्जरा भवतितीभावः । कर्मणो निर्जरा च - द्विविधा प्रज्ञप्ता, विपाकजन्याऽविपाकजन्या च । तत्र - विपाक उदयः, अविपाकः पुनरुदीरणा उच्यते । तत्र - विपाकजन्या कर्मनिर्जरा तावत् चतुर्गतावनेक जातिविशेषावधर्षिते संसारार्णवे परिप्लवमानस्य जीवस्य शुभा - ऽशुभात्मकर्मणः प्राप्तविपाककालस्य यथायोग्यमुदयावलिकाप्रवाहे पतितस्य फलोपभोगादुपजात स्थितिक्षये सति निवृत्तिरूपा बोध्या ।
यस्य पुनः कर्मणो विपाककालाप्राप्तस्य औपक्रमिकक्रियाविशेषसामर्थ्यादनुदीर्णस्य सतो - ऽपि बलादुदीरणया- उदयावलिकाणामनुप्रवेशनेन पनस - तिन्दुका - ssम्रफलादिपाकवद् वेदनेन - निर्जरा भवति, सा- विपाकजन्या निर्जरोच्यते । तथाचोक्तम्
तारीकरण ताम्रस्य शोषणस्ते मृदः क्रमशः । आम्रपरिपाचनं वा काले तेषूपदृष्टान्ताः ॥ १ ॥
एते त्रयोदृष्टान्ताः संक्रमस्थित्युदीरणासु यथासंख्यं योजनीयाः, सैवेयमविपाकजन्या कर्मनिर्जरा तपोहेतुका व्यपदिश्यते, वक्ष्यमाणेन द्वादशप्रकारेण - तपसा च कर्मण आस्रवनिरोधलक्षणः संवरश्च भवति, निर्जरा च भवतीत्यग्रे संवराधिकारे वक्ष्यते, उक्तञ्च - भगवतीसूत्रे १ - शतके १ उद्देशके ११सूत्रे - "उदीरिया वेड्या य निज्जिन्ना - " इति, उदीरितानि - वेदित्तानि च निर्जीर्णानि, इति ॥२१॥
इस प्रकार ज्ञानावरण आदि कर्मों के विपाक के पश्चात् उसकी निर्जरा हो जाती अर्थात् वह आत्मप्रदेशों से अलग हो जाता है ।
कर्म की निर्जरा दो प्रकार की है - विपाकजन्य और अविपाकजन्य । यहाँ विपाक का अर्थ है उदय और अविपाक का अर्थ उदीरणा । इस चतुर्गति रूप एवं अनेक प्रकार के जन्मों वाले संसार - सागर में बहते हुए जीव के शुभ अशुभ कर्म जब विपाककाल के आने पर स्वयं उदय में आते हैं तो उनका फल भोग लेनेपर उनकी स्थिति का क्षय हो जाता है । स्थितिक्षय हो जाने पर वे निवृत्त हो जाते हैं । यह विपाकजन्य निर्जरा है ।
जिस कर्म के विपाक का काल प्राप्त न हुआ हो, फिर भी किसी औपक्रमिक क्रिया के द्वारा उसे बलात् उदय में ले आना उदीरणा है । उदीरणा के द्वारा कर्मफल भोग लेने के पश्चात् उसकी निर्जरा हो जाती है । वह अविपाक जन्य निर्जरा कहलाती है । जैसे पनस, तेंदू या आम का फल घास आदि में दबा देने से समय से पूर्व ही पक जाता है, उसी प्रकार कोईकोई कर्म भी अपने नियत समय से पहले ही उदीरणा के द्वारा अपना फल दे देता है और फल देने के पश्चात् झड़ जाता है । इसे अविपाकजन्य निर्जरा कहते हैं । कहा भी है
'तांबे का तार बनाना, मिट्टी का शोषण या आद्रीकरण करना और आम को पकाना, यह तीन उदाहरण संक्रम, स्थिति और उदीरणा के विषय में यथाक्रम समझ लेने चाहिए ।' क्योंकि यह तप से होती है । आगे कहे संवर भी होता है । यह बात आगे
यह अविपाकजन्य निर्जरा तपहेतुक होती है, जाने वाले बारह प्रकार के तप से निर्जरा के अतिरिक्त
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧