SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 442
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२० तत्त्वार्थसूत्रे एवं यस्य कर्मण उदयाद् दरिद्रोऽयम् गर्हितश्चाण्डालादिरित्येवं नीचशब्देन गूयते-शब्द्यते इति तत्कर्म नीचै गोत्रं विपच्यमानं निन्दितवंशशब्देन पर्यवस्यति- । एवं यस्य कर्मण उदयाद् देय-दान-दात्रादीनां मध्ये विघ्नो जायते---- तत्कर्माऽन्तरायपदेन व्यपदिश्यते, तथा-- विधान्तरायकर्म विपच्यमानं सत् दानादीनां विघ्नकरणे पर्यवस्यति. । एवञ्च-नारकादि गति जाति शरीरादिवृत्ते र्जीवस्य ज्ञानावरणादि सर्वकर्मणामुदये सति यथानाम विपाको भवति. । तथाचोक्तं समवायाङ्गे विपाकश्रुतवर्णने "अणुभागफलविवागा सव्वेसिं च कम्माणं-" इति, अनुभागफलविपाकाः सर्वेषाश्च कर्मणाम् इति । एवं-प्रज्ञापनायां २३-पदे ३३-उद्देशे, उत्तराध्ययने-३३-अध्ययने चोक्तम् । अथोक्तरीत्या यदि तथाविधकर्मणां विपाकलक्षणोऽनुभाव इत्युच्यते, तदा किं तत्कर्मा–ऽनुभूतंसद् आभरणवदवतिष्ठते-? आहोस्वित्-निःसारं सत् प्रवच्यते-३ इतिचेद् अत्रोच्यते-बद्धं कर्माऽनुभूतं सत् यथायोग्यमात्मनः पीडानुग्रहौप्रदाया-ऽभ्यवहृतौदनादिविकारवत् अवस्थाननिमित्ताऽभावात् विनष्टं निर्जीर्ण भवति. । एवञ्च-ज्ञानावरणादिकर्मणो विपाकलक्षणादनुभावात् क्षयलक्षणपरिशटनं भवति आत्मप्रदेशेभ्यः परिपतनलक्षणं निर्जरणं कर्मपरिणते विनाशो जायते, आकर्मपरिणामफलपरिणामभोगभोजकुल या इक्ष्वकु कुल का है इस प्रकार के शब्दों से कहा जाता है वह उच्च गोत्र कर्म भी अपने नाम के अनुसार ही फल देता है । जिस कर्म के उदय से 'यह दरिद्र है, गर्हित है, चाण्डाल है, इत्यादि नीचशब्दों से शब्दित होता है वह नीचगोत्र कहलाता है। इसका फल नीच वंश आदि की प्राप्ति है । जिस कर्म के उदय से देय, दान, दाता आदि के मध्य में अन्तराय-विघ्न उपस्थित हो जाता है, वह अन्तरायकर्म कहलाता है । अन्तरायकर्म जब अपना फल देता है तो वह दान आदि में विघ्न डालने के रूप में ही होता है । इस प्रकार ज्ञानावरण आदि समस्त कर्मों का फल उनको अपने-अपने नाम के अनुसार ही होता है । समवायांग सूत्र में विपाकश्रुत के वर्णन में कहा है-'अनुभाग-फल-विपाक सभी कर्मों का होता है ।' 'प्रज्ञापनासूत्र के पद २३ में तथा उत्तराध्ययन के अध्ययन ३३ में भी ऐसा ही कहा है। शंका-यदि कर्मों का फल पूर्वोक्त प्रकार से होता है तो फल देने के पश्चात् वह कर्म आभूषण की तरह रहता है अथवा निस्सार होकर च्युत हो जाता है-झड़ जाता है ? __समाधान-बाँधा हुआ कर्म जब भोग लिया जाता है तो आत्मा को पीड़ा या अनुग्रह प्रदान करके, खाये हुए भोजन आदि के विकार की तरह झड़ जाता है; क्योंकि उस समय उसके ठहरने का कोई कारण नहीं रह जाता । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy