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________________ ४१८ तत्त्वार्थसूत्रे "यद्यद्वा मन्दं सत् क्षारीक्रियते हरिद्रया चूर्णम् । वातातपादिभिश्च क्षारं मन्दीक्रियते यथा-॥३॥ "तीवोऽनुभावयोगो भवतिहि मिथ्यात्ववेदनीयस्य-। सम्यक्त्वे त्वतिमन्दो मिश्रे मिश्रोऽनुभावश्च ॥ ४ ॥ इति एवञ्च-दर्शनमोहनीय-चारित्रमोहनीय-वेदनीया-ऽऽयुष्य कर्मोत्तरप्रकृतिनामागमे आस्रवाणां भिन्नतयैव पठितत्वेन जात्यन्तरानुवर्तनकारि विपाकनिमित्तानां तेषां विभिन्नजातीयकत्वेन न तासामुत्तरप्रकृतीनां संक्रम इति भावः । किन्तु-सर्वासामेव मूलोत्तरप्रकृतिनामपवर्तनं तुभवत्येव, तच्चापवर्तनं द्राघीयस्याः कर्मस्थितेरल्पीकरणरूपं बोध्यम्. । अध्यवसायविशेषात्-सर्वासामेव प्रकृतिनां तत्सम्भवति । प्रस्तुतः खल्वनुभावलक्षणो विपाको यथा नाम भवति, एवञ्च - - यस्य कर्मणो यद्नाम संज्ञा भवति, तत्कर्मनामानुरूपमेव विपच्यते तथाच-ज्ञानावरणादिकर्मणां सविकल्पानां प्रत्येकमन्वथनिर्देशो वर्तते । तथाहि - ज्ञानमात्रियते येन तद् ज्ञानावरणं कर्मोच्यते तद्धि ज्ञानावरणं कर्म विपच्यमानं ज्ञानाभावे पर्यवस्यति, ज्ञानावरणकर्मणो विपाकावस्थायां ज्ञाने भावे पर्यवसानं बोध्यम् । 'इसी प्रकार जीव अपने प्रयोग से अनुभाव में भी संक्रमण करता है अर्थात् किसी कर्म प्रकृति का तीव्र अनुभाव बन्ध किया हो तो अपवर्तनाकरण के द्वारा उसे मंद रूप में पलट सकता है और बाँधे हुए मन्द अनुभाव को उद् वर्त्तना करण के द्वारा तीत्र अनुभाव में बदल सकता है। जैसे मन्द अनुभाव वाला चूर्ण हरिद्रा (हल्दी) के द्वारा तीव्र कर दिया जाता है और तीव्र चूर्ण वायु एवं धूप के द्वारा मन्द बना दिया जाता है । 'मिथ्यात्व प्रकृति का अनुभाव तीत्र होता है, सम्यक्त्व-प्रकृति का अनुभाव मन्द होता है और मिश्र प्रकृति का अनुभाव मिश्र-मध्यम होता है।' इस प्रकार दर्शनमोहनीय, चरित्रमोहनीय, और आयुष्कर्म की उत्तर प्रकृतियों का संक्रमण नहीं होता । इसका कारण यह है कि इनके बन्ध के कारण आगम में भिन्न-भिन्न बतलाए गए हैं और भिन्न करणों से बन्ध होने से ये प्रकृतियाँ भिन्न जाति की हैं। इनका फल भी भिन्न है । हाँ अपवर्तन सभी प्रकृतियों का हो सकता है, चाहे मूलप्रकृति हो या उत्तर प्रकृति । दीर्घकालीन स्थिति का अल्पकालीन हो जाना अपवर्तन कहलाता है। परिणाम की विशेषता के अनुसार सभी प्रकृतियों का अपवर्तन हो सकता है। यह जो अनुभाव-विपाक है, वह नाम के अनुसार होता है। जिस कर्म का जो नाम है. उसी के अनुरूप उसका फल भी होता है । ज्ञानावरण आदि सभी कर्मों के विषय में यही समझना चाहिए । जैसे-जो कर्म ज्ञान को आवृत-अच्छादित करता है, वह ज्ञानावरण શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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