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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ३ सू० २१ अनुभावबन्धनिरूपणम् ४१७ क्त्वसम्यगमिथ्यात्वयोमिथ्यात्वं संक्रामयति, किन्तु-आयुष्यस्य नारकतिर्यङ्मनुष्यदेवभेदस्य परस्परं संक्रमो न भवति । नहि-नारकायुष्यं तिर्यगायुष्यं वा मनुष्यायुष्ये-देवायुष्ये वा संक्रमं विधत्ते। तथाचोत्तरप्रकृतिष्वपि दर्शनचारित्रमोहनीयकर्मणोः सम्यमिथ्यात्व-वेदनीयायुष्काणाञ्चोत्तरप्रकृतीनां जात्यन्तरानुबन्धविपाकनिमित्तानां भिन्नजातीयकत्वादेव संक्रमो न भवतीतिभावः तथाचोक्तम् "मूलप्रकृतिभिन्नाः संक्रमयति गुणत उत्तराः प्रकृतीः। नत्वात्मामूर्तत्वा दध्यवसानप्रयोगेण ॥१॥ शिथिलयति दृढबद्धं द्रढयति च कर्म ननु जीवः । उत्कृष्टाश्च जघन्याः स्थितिविपर्यासयति चापि-॥२॥ इति संक्रमण-स्थित्यु-दीर्णात्रयेच दृष्टान्तत्रयं प्रदर्श्यते "तारीकरणं ताम्रस्य शोषणस्तेमनेमृदः क्रमशः । आम्रपरिपाचनं वा काले तेषूपदृष्टान्ताः- ॥१॥ यथासंख्यमन्वयो बोध्यः-- अनुभावांश्च विपर्यासयति तथैव प्रयोगतो जीवः । तीव्रान् वा मन्दान् वा स्वासु प्रकृतिस्वभिन्नासु- ॥२॥ चार उत्तरप्रकृतियों का परस्पर संक्रमण नहीं होता-नरकायु बदल कर तिर्यंचायु आदि के रूप में नहीं हो सकती । इसी प्रकार कोई भी अन्य आयु किसी दूसरी आयु प्रकृति के रूप में नहीं प्राप्त की जाती । तात्पर्य यह है कि उत्तर प्रकृतियों में भी दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय का, सम्यग-मिथ्यात्ववेदनीय का तथा आयु कर्म की प्रकृतियों का परस्पर संक्रमण नहीं होता; क्योंकि उनके बन्ध के कारणों में भिन्नता है, इस कारण वे भिन्न जातिय हैं । कहा भी है 'आत्मा अमूर्त्त होने के कारण अपने अध्यवसाय की विशेषता से मूल प्रकृतियों से अभिन्न उत्तर प्रकृतियों में संक्रमण करता है, अर्थात् एक मूल प्रकृति की उत्तर प्रकृतियों में उलट-पलट कर लेता है । इसी प्रकार दृढ़ बाँधे हुए कर्म को अध्यवसाय की विशेषता से शिथिल कर लेता है और शिथिल बाँधे हुए को दृढ भी कर लेता है । और जघन्य स्थिति को उत्कृष्ट स्थिति के रूप में बदल सकता है । संक्रमण, स्थिति और उदीरणा , इन तीनों के विषय में तीन दृष्टान्त दिखलाते है संक्रमण का दृष्टान्त है ताँबे को तारों के रूप में पलटना-तांबा प्रयोग के द्वारा तारों ने रूप में परिवर्तित हो जाता है। स्थिति का उदाहरण है-मृत्तिका का शोषण एवं आर्दीकरण उदीरणाका उदाहरण है आम को जल्दी पका लेना यह क्रमशः तीन उदाहरण हैं। શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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