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तत्त्वार्थसूत्रे
एवम्-भोगो-पभोग-वीर्यान्तरायकर्माण्यपि बोध्यानि तथा सकलार्थिभ्यस्तदीयप्रार्थनानुसारं यथाशक्तिनिर्विशेषमुदारचेताः सन्नपि यस्य याचमानस्यापि देयमल्पमाप द्रव्यं न ददाति तस्य लाभान्तराय कर्मोदयो बोध्यः ।।
एवं सकृदुपभुज्य यत् परित्यज्यते पुनरुपभोगाक्षम स्रक्चन्दनप्रभृति, तच्च-भोगरूपं सम्भवदपि यस्य कर्मण उदयाद् यो न भुङ्क्ते तस्य भोगान्तरायकर्मोदयः वस्त्र--शयना-सन भाजनादिरूप उपभोग उच्यते, पुनः पुनरुपभुज्यमानत्वादुपभोगशब्देन तदुच्यते, तस्य वस्त्राद्युपभोगस्य सम्भवेऽपि यस्य कर्मण उदयाद् न परिभोगो भवति, तत्कर्म उपभोगान्तराय कर्म व्यपदिश्यते ।
वीर्य पुनरुत्साहश्चेष्टाशक्तिरित्युच्यते, तत्र-यस्य कर्मण उदयात् कस्यचित्समयस्यापिबलसम्पन्नस्यापि उपचितशरीरस्यापि-तरुणस्यापि अल्पप्राणता धर्मादिकार्यकर्तुः सामर्थ्योत्साहादिकं न भवति तद् वीर्यान्तरायकर्म उच्यते, तथाविधस्य च वीर्यान्तरायकर्मणः पृथिव्यप्तेजो वायुवनस्पतिकायेषु क्षयोपशमजनिततारतम्यात् साकल्येनोदयो बोध्यः ।
द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियादेस्तु-वीर्यस्य वृद्धि यावत् चरमछद्मस्थो भवेत् इति प्रकर्षाप्रकर्षविशेषोपलब्धेः। तीर्थङ्करे पुनरुत्पन्नकेवले सर्ववीर्यान्तराय कर्मक्षयः, तस्मिन् भगवति निरतिशयं वीर्यं भवतीति भावः।१३। न्तराय और वीर्यान्तराय कर्म भी इसी प्रकार स्वयं समझ लेने चाहिए । कोई उदारचित्त पुरुष, समान भाव से, याचकों की इच्छा के अनुसार यथाशक्ति दान दे रहा हो, मगर कोई ऐसा याचक हो जिसे याचना करने पर भी, स्वल्प भी द्रव्य न दे तो समझना चाहिए कि उस याचक को लाभान्तराय कर्म का उदय है ।
जो वस्तु एक बार भोगी जाय वह भोग कहलाती है, जैसे माला चन्दन आदि । भोग के योग्य वस्तु विद्यमान हो फिर भी जिस कर्म के उदय से उसका भोग न किया जासके वह भोगान्तराय कर्म कहलाता है। वस्त्र, शय्या, आसन, भाजन आदि उपभोग कहलाता है, क्योंकि उनका बार-बार भोग किया जाता है । इन वस्त्र आदि वस्तुओं के होने पर भी जिस कर्म के उदय से परिभोग न किया जा सके, उसे उपभोगान्तराय कर्म कहते हैं।
वीर्य का अर्थ है उत्साह, चेष्टा, या शक्ति । कोई मनुष्य बलसम्पन्न है, पुष्ट शरीर वाला है, तरुण है, फिर भी धर्म कार्य आदि करने में सामर्थ्य प्रकट नहीं करता, उत्साह नहीं दिखलाता, तो समझना चहिए कि उसके वीर्यान्तराय कर्म का उदय है । पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय के जीवों में वीर्यान्तराय कर्म का, क्षयोपशम जनित तरतमता के अनुसार पूर्णरूप से उदय समझना चाहिए । इनकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय जीवों में, द्वीन्द्रियों की अपेक्षा त्रोन्द्रिय जीवों में कम वीर्यान्तराय पाया जाता है । इस प्रकार छद्मस्थ-अवस्था के चरम समय में अर्थात् बारहवें क्षीण कषाय नामक गुणस्थान के अंतिम समय में वीर्यान्तराय कर्म सब से कम पाया जाता है। केवलज्ञान उत्पन्न होने पर चाहे तीर्थकर केवली हो या सामान्यकेवली, वीर्यान्तराय कर्म से सर्वथा रहित हो जाते हैं। उनमें सर्वोत्कृष्ट वीर्य होता है ॥१३॥
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧