SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 420
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३९८ तत्त्वार्थसूत्रे निवर्तकमपर्याप्तिनाम । अनेकजीवसाधारणशरीरनिवर्तकं साधारणशरीरनाम, अनन्तानां जीवानामेकं शरीरं साधारणं किसलय-निगोदवज्रप्रभृति, यथा-एकजीवस्य परिभोगः तथा ऽनेकस्यापि तदभिन्नम् एकं साधारणं सत् यस्य कर्मण उदयात् निष्पद्यते तत्-साधारणशरीरनाम । स्थिरत्वनिष्पादकं स्थिरनाम । तद्विपरीतमस्थिरनाम । एवम्-शुभा-ऽशुभ-सुभगदुर्भग-सुस्वर-दुःस्वरेष्वपि कर्मसु विभावनीयम् । आदेयत्वनिर्वर्तकम्-आदेयनाम । तद्विपरीतमनादेय नाम यशोर्निवर्तकं यशः कीर्त्तिनाम । तद् विपरीतमयशः कीर्तिनाम । तीर्थकरत्वनिवर्तकं तीर्थकरनाम ___ एवं यस्य कर्मण उदयाद् दर्शन-ज्ञान-चरण लक्षणं तीर्थं प्रवर्तयति मुनिगृहस्थ सर्वविरति-देशविरतिधर्मञ्चोपदिशति आक्षेपिणी-संक्षेपिणी-संवेग-निर्वेदकथाभिर्भव्यजनसंसिद्धये सुराऽसुर-नरपतिपूजितश्च भवति तत् तीर्थकरनाम, इत्येवं सोत्तर नामकर्मभेदो बहुविधः प्रज्ञप्तः ॥११॥ जिस कर्म के उदय से जीव अपने योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण न कर पावे उसे अपर्याप्तिनाम कर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से ऐसे शरीर का निर्माण हो जो अनेक (अनन्त) जीवों के लिए साधारण हो, वह साधारण नाम कर्म कहलाता है। अनन्त जीवों का जो एक ही शरीर होता है, उसे साधारणशरीर कहते हैं । ऐसा शरीर कोंपल आदि निगोद में ही पाया जाता है। वहाँ एक जीव का आहार अनन्त जीवों का आहार होता है, एक का श्वासोच्छ्वास ही अनन्त जीवों का श्वासोच्छ्वास होता है। ऐसा साधारण शरीर जिस कर्म के उदय से निष्पन्न होता है, वह साधारणशरीर नाम कर्म है। स्थिरता उत्पन्न करने वाला कर्म स्थिरनामकर्म है । इससे जो विपरीत हो वह अस्थिर नामकर्म है । इसी प्रकार शुभ, अशुभ, सुभग, दुर्भग, सुस्वर और दुःस्वर नाम कर्म भी समझ लेने चाहिए । आदेयता उत्पन्न करने वाला आदेयनामकर्म कहलाता है और जो उससे विपरीत हो वह अनादेयनामकर्म है । जिसके उदय से यश और कीर्ति फैले वह यशः कीर्तिनामकर्म और जिसके उदय से अपयश एवं अपकीर्ति हो, वह अयशःकीर्त्तिनामकर्म कहलाता है । जिस कर्म के उदय से तीर्थकरत्व की प्राप्ति हो, उसे तीर्थकरनामकर्म कहते हैं। इस कर्म के उदय से जीव दर्शन ज्ञान-चारित्र रूप तीर्थ की प्रवृत्ति करता है, मुनियों के सर्वविरति और गृहस्थों के देशविरति धर्म का उपदेश करता है, आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेगिनी और निर्वेदिनी कथाओं के द्वारा भव्य जनों की सिद्धि मोक्ष के लिए मोक्षमार्ग प्रदर्शित करता है और जिस कर्म के प्रभाव से सुरेन्द्रों, असुरेन्द्रों एवं नरेन्द्रों द्वारा पूजित होता है वह तीर्थकरनामकर्मकहलाता है। इस प्रकार नामकर्म की उत्तर एवं उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ अनेक प्रकार की कही गई है ॥११॥ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy