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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ३ सू० ११ नामकर्मणो द्विचत्वारिंशभेदनिरूपणम् ३९७ प्राणापानपुद्गलग्रहणसामर्थ्यजनकम्-उच्छ्वासनाम । आतपसामर्थ्यजनकं तावद् आतपनाम-उच्यते । प्रकाशसामर्थ्यजनकमुद्योतनाम । लब्धिशिक्षर्द्धिहेतुकस्याऽऽकाशगमनस्य जनक विहगगतिनाम, तत्र-प्रशस्ता विहगगति हंसादीनाम् , अप्रशस्ता पुनरुष्ट्रादीनाम् । त्रसत्वनिष्पादकंवसनाम, त्रसाः-द्वि-त्रि-चतुष्पञ्चेन्द्रियलक्षणा जीवा उच्यन्ते, त्रस्यन्तीति त्रसाः । ___स्थावरत्वनिष्पादकं स्थावरनाम, । सूक्ष्म शरीरनिवर्तकं-सूक्ष्मनाम । बादरशरीरनिवर्तकंबादरनाम । पर्याप्तनामविविच्यते-तत्र पर्याप्तं पर्याप्तिः सा तावत्पञ्चविधा-आहारपर्याप्तिः-शरीरपर्याप्ति:-इन्द्रियपर्याप्तिः-भासामणपज्जत्ति-भाषामनःपर्याप्तिश्च-। तत्रात्मनः क्रियापरिसमाप्तिः पर्याप्तिरुच्यते । तथा च-पुद्गलरूपात्मनःकरणविशेषः पर्याप्तिः, येन करणविशेषेणाऽऽ-त्मनः आहारादिग्रहणसामर्थ्य निष्पद्यते, तच्च करणं यैः पुद्गलै निष्पाद्यते ते पुद्गला आत्मना गृहीताः सन्तस्तथाविधपरिणतिशालिनः पर्याप्तिशब्देन व्यपदिश्यन्ते । मनःप्राप्तिरपि-इन्द्रियपर्याप्तिमध्ये गतार्था- पर्याप्तिनिवर्तक-पर्याप्तिनाम । एवमपर्याप्ति प्राणापान अर्थात् उच्छवास और निश्वास के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करने की शक्ति ऊत्पन्न करने वाला कर्म उच्छ्वास नाम कर्म कहलाता है। आतप के सामर्थ्य का जनक कर्म आतपनाम कर्म है । प्रकाश की शक्ति उत्पन्न करने वाला उद्योतनाम कर्म है। लब्धि, शिक्षा या ऋद्धि के प्रभाव से आकाश में गमन करने की शक्ति उत्पन्न करने वाला कर्म विहगगति या विहायोगति नाम कर्म कहलाता है। प्रशस्त विहायोगति हंस आदि की सुन्दर चाल और अप्रशस्त विहायोगति ऊंट आदि की भद्दी चाल समझना चाहिए । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जव त्रस कहे जाते हैं । जिस कर्म के उदय से त्रस पर्याय की प्राप्ति होती है वह त्रस नाम कर्म है । जिस कर्म के उदय से स्थावर पर्याय की प्राप्ति हो, वह स्थावर नामकर्म है । सूक्ष्म शरीर का जनक सूक्ष्मनामकर्म है । जिसके उदय से बादर शरीर उत्पन्न हो वह बादरनामकर्म कहलाता है। पर्याप्त नाम कर्म का विवेचन-जिस कर्म के उदय से अपने-अपने योग्य पर्याप्तियों की पूर्णता हो वह पर्याप्ति नाम कर्म कहलाता है। पर्याप्तियाँ पाँच हैं-आहारपर्याप्ति, शरीरपर्याप्ति, इन्द्रियपर्याप्ति 'भासामणपज्जत्ति' और भाषामनःपर्याप्ति । आत्मा की क्रिया की समाप्ति को पर्याप्ति कहते हैं । इस तरह पर्याप्ति आत्मा का एक प्रकार का करण है । उस करण से आत्मा में आहार आदि को ग्रहण करने का सामर्थ्य उत्पन्न होता है, वह करण जिन पुद्गलों से उत्पन्न होता है, वे पुद्गल आत्मा के द्वारा गृहीत होकर एवं विशिष्ट परिणाम से परिणत होकर पर्याप्ति कहलाते हैं। मनः पर्याप्ति इन्द्रियपर्याप्ति में सम्मिलित है, अतः उसकी पृथक गणना नहीं की गई है । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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