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________________ दीपिकानयुक्तिश्च अ ३ सू. ११ नामकर्मणो द्वित्रत्वारिंशद्भेदनिरूपणम् ३९३ वालुकानिर्मितपुरुषवत् शरीराणि विधटेरन् । तस्मात् - [ शरीर = ] बन्धननामस्वीकृतम्, यदपि - औदारिकशरीरादिभेदात् पञ्चविधम् प्रज्ञप्तम् । बद्धानामपि पुद्गलानां परस्परं जतुकाष्ठन्यायेन पुद्गलरचनाविशेषः संघातः । संयोगेनाssत्मना गृहोतानां पुद्गलानां यस्य कर्मण उदयात् - औदारिकादिशरीर विशेषरचना भवति तत्संघातना - मकर्मदारुमृत्पिण्डायःपिण्डसंघातवत् एतदपि संघातनाम - औदारिकादिशरीरभेदात् पञ्चविधम् । स चैवं विधः संघातनामकर्मभेदो यदि न स्यात् तदा -- प्रत्यक्षतया विनिश्चयः पुरुषस्त्री गवादिलक्षणो विविधशरीरभेदो नैव संभाव्येत संघातकर्मविशेषाभावात्. । संहनननामापि षड्विधम्, वज्रऋषभनाराचादिभेदात् । तत्राऽस्नां बन्धविशेषः संहननम्, तत्र वज्रं - कीलिका -- ऋषभः - परिवेष्टनपट्टः, नाराचः - उभयतोमर्कटबन्धः इति पदार्थः । यत्र द्वयोरस्थो रुभयतो मर्कटबन्धेन बद्धयोः पट्टाकृतिना तृतीयेनाsस्था परिवेष्टितयोरुपरि तदस्थित्रितयभेदि कीलिकाकारं वज्रनामकमस्थिभवेत्तद् वज्रर्षभनाराचसंहननम् १ यत् वज्राकार कीलिकारहितं पूर्वोक्तं संहननं तद्ऋषभनाराचसंहननम् २ यत्र उभयपार्श्वआदि न होता तो बालू से बने हुए पुरुष के समान शरीर बिशर जाते । तात्पर्य यह है कि जैसे बालू के कण आपस में मिले हुए होकर भी पृथक्-पृथक् रहते हैं, उसी प्रकार शरीर के पुद्गल पृथक्-पृथक् ही न रह जाएँ, इसके लिए बन्धन नाम स्वीकार किया गया है । बन्धन नाम कर्म भी औदारिक आदि शरीरों की तरह पाँच प्रकार का है । 1 लाख और काष्ठ के समान परस्पर बद्ध पुगलों को जो प्रगाढ़ रचनाविशेष है, उसे संघ कहते हैं । पर्य यह है कि आभा के द्वारा गृहीत पुद्गलों का बन्धन नाम कर्म के द्वारा आपस में बन्ध तो हो जाता है, मगर उस बन्ध में प्रगाढ़ता लाने वाला संघात नाम कर्म हैं । अतएव जिस कर्म के उदय से औदारिक आदि शरीरों की गाढी रचना होती है वह संघात नाम कर्म कहलाता है । जैसे काष्ठ में या मृत्तिका के पिण्ड में एक प्रकार को सघनता होती है, उसी प्रकार की सघनता शरीर - पुद्गलों में भी देखी जाती है । यहनता संघात लोभ कर्म के उदय से उत्पन्न होती है । संघात नाम कर्म भी शरीर नाम कर्म के समान औदारिक आदि के भेद से पाँच प्रकार का है । अगर संघात नाम कर्म न होता तो शरीर में जो ठोसपन दिखाई पड़ता है, वह न होता । संहनन नाम कर्म छह प्रकार का है - वज्र - ऋषभनाराच संहनन, वज्र का अर्थ कीलिका है, ऋषभ का अर्थ परिवेष्टन पट्ट है, नाराच का अर्थ दोनों तर्फ मर्कट बन्ध है, इस प्रकार यह पदों का अर्थ हुआ । संहननों का अर्थ किया जाता है - जिसमें दो हड्डियाँ दोनों तर्फ मर्कट बन्ध से बन्धी हुई और फिर पट्टे की आकृति वाली तीसरी हड्डी से परिवेष्टित की हुईं हों, उनके उपर उन तीनों हड्डियों को कीली के आकार की वज्र नाम की तीसरी हड्डी लगी हुई हो उस बन्धन विशेष को वज्र ऋषभनाराच संहनन कहते हैं १ | जिसमें हड्डियां सब ५० શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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