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________________ ३९२ तत्त्वार्थसूत्रे हिका पिपीलिकादिभ्रमरसरघादितिर्यगमनुष्यादिजातिनामभेदेन वक्तव्यानि औदारिक-वैक्रिया-ऽऽहारक-तैजस-कार्मणशरीरनामानि पञ्चविधानि नामकर्मण उत्तरप्रकृतिरूपाणि भवन्ति । __ औदारिक-वैक्रियाहारकभेदभिन्नानि त्रिविधान्यपि शरीराङ्गोपाङ्गनामानि प्रत्येकमनेकविधानि भवन्ति, । तत्र-शरीराङ्गनाम खलु शिरोनाम-१उरोनाम-२पृष्ठनाम-३बाहुनाम-४उदरनाम--५ चरणनाम-६हस्तनाम-७। उपाङ्गनामान्यपि अनेकविधानि भवन्ति, स्पर्शननाम-रसननाम घ्राणनाम-चक्षुर्नाम-श्रोत्रनाम प्रभृतीनि । एकेन्द्रियादिलक्षणपञ्चविधजातिषु स्त्रीपुरुषनपुंसकलिङ्गव्यवस्थानियामकमाकाररूपावयवरचनाव्यवस्थानियामकञ्च शरीरनिर्माणनामोच्यते । तथाच-सर्वजीवानां स्वकीय-स्वकीयशरीरावयवविन्यासनियमकारणं तावत् [शरीर निर्माणनाम भवति.। हादिनिर्माणकलाकौशलशालितक्षकवत्. । शरीरनामकर्मोदयात् गृहितेषु-गृह्यमाणेषु वा तद्योग्यपुद्गलेषु -आत्मप्रदेशस्थितेषु शरीराकारेण परिणामितेष्वपि जतुकाष्ठवत् । परस्परावियोगलक्षणं [शरीर] बन्धननाम यदि न स्यात्-तदाकर्म, वनस्पतिकायिक-एकेन्द्रियजातिनामकर्म, । इसी प्रकार द्वीन्द्रियजातिनामकर्म शंख और शुक्तिका आदि के भेद से, त्रीन्द्रियजातिनाम उपदेटिका (उदयी) पिपीलिका आदि के भेद से, चतुरिन्द्रियजातिनाम भ्रमर तथा सरघा (मधुमक्खी) आदि के भेद से और पंचेन्द्रियजातिनाममनुष्य आदि जातिनाम के भेद से अनेक प्रकार के समझ लेने चाहिए । शरीरनामकर्म के पाँच भेद हैं-औदारिकशरीरनामकर्म, वैक्रियशरीरनामकर्म, आहारकशरीरनामकर्म, तैजसशरीरनामकर्म, कार्मणशरीर नामकर्म । औदारिक-अंगोपांग, वैक्रिय-अंगोपांग और आहारक-अंगोपांग के भेद से तीन प्रकार के अंगोपांगनामकर्म में से भी प्रत्येक के अनेक भेद होते हैं । शिरोनामकर्म ,उरोनामकर्म, पृष्ठनामकर्म, बाहुनामकर्म, उदरनामकर्म, चरणनामकर्म, हस्तनामकर्म, ये अंगनामकर्म के भेद हैं । इसी प्रकार उपांगनामकर्म भी अनेक प्रकार के होते हैं, जैसे-स्पर्शनउपांगनामकर्म, रसनाउपांगनामकर्म, घ्राण-उपांगनामकर्म, चक्षु-उपांगनामकर्म, श्रोत्र-उपांगनामकर्म इत्यादि । एकेन्द्रियजाति आदि पाँच प्रकार की जातियों में स्त्री, पुरुष, नपुंसक लिंग की व्यवस्था का नियमन करने वाला एवं अमुक प्रकार के अवयवों की रचना की व्यवस्था का नियामक निर्माण नाम कर्म है। निर्माण नाम कर्म के उदय से ही समस्त जीवों के अपने-अपने ढंग के शरीर अवयवों की रचना होती है। यह निर्माण नाम कर्म महल-मकान आदि बनाने में कुशल कारीगर के समान है। शरीर नाम कर्म के उदय से शरीर के योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर लिया, वे आत्म प्रदेशों में स्थित भी हो गए और शरीर के आकार में परिणत होगए, किन्तु उन्हें लाख और काष्ट के समान आपस में अवियोग (एक मेक रूप) करने वाला बन्धन नाम कर्म શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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