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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ. १ नवतत्वनिरूपणम् १७ तत्र-नारकदेवगर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्यपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिजाः समनस्का बोध्याः । तदन्ये तुअमनस्का ईहापोहयुक्तसंप्रधारणसंज्ञायां संज्ञिनो जीवाः समनस्का उच्यन्ते इति भावः । सूत्र ॥३॥ नियुक्तिः-पूर्वसूत्रे जीवस्य स्वरूप लक्षणतः प्ररूपितम् सम्प्रति-तस्यैव विभागादिविशेषस्वरूप प्रतिपादयितु माह—समणायाऽमणाया इति । ते खलु संसारिणो जीवाः संक्षेपतो द्विविधा भवन्ति, समनस्का अमनस्काश्च । अत्र-समनस्काऽमनस्केति समस्तनिर्देशात् संसारिणामेव जीवानां सम्बन्धो न तु-मुक्ता नाम् । संसारिणामेव जीवानां समनस्काऽमनस्कत्वोभयवैशिष्ट्यं वर्त्तते-न तु-मुक्तानाम् । तेषां सिद्धानाममनस्कत्वस्यैव सत्वात् । प्रथमे द्वितीये च गुणस्थाने संज्ञिनोऽसंज्ञिनश्च द्वि प्रकारका अपि जीवा भवन्ति । इतः परं द्वादशं गुणस्थानं यावत् संज्ञिन एव मानिताः सन्ति । त्रयोदशे चतुदशे च गुणस्थाने वर्तमाना जीवाः, सिद्धाः, नो संज्ञिनः नो असंज्ञिनः (नो समनस्काः, नो अमनस्काश्च कथिताः सन्ति । द्वितीयस्थानीये द्वितीयोदेशके विद्यते-प्रथमनरकभवनपतिवानव्यन्तरपर्यन्तम् असंज्ञि तिर्यक् पञ्चेन्द्रिय जीवा उत्पद्यन्ते, अल्पसमयं यावत् असंज्ञिनस्तिष्ठन्ति तत्पश्चात् पुनः संज्ञिनो जायन्ते ॥ सूत्र ३॥ नारक, देव, गर्भज मनुष्य और पंचेन्द्रिय तिर्यच समनस्क होते हैं, इनसे अतिरिक्त दूसरे जीव अमनस्क कहलाते हैं । ईहा, अपोह से युक्त एवं सम्प्रधारण संज्ञा से संज्ञी जीव समनस्क कहे जाते हैं ॥३॥ तत्वार्थ नियुक्ति पूर्वसूत्र में जीव के लक्षण का निरूपण किया गया है । अब भेद आदि करके उसी के विशेष स्वरूप का प्रतिपादन करने के लिए कहते हैं 'समणायाऽमणाया।' संसारी जीव संक्षेप से दो प्रकार के हैं- समनस्क और अमनस्क । यहाँ 'समनस्कामनस्क' इस प्रकार समास युक्त पद का प्रयोग करने से यह प्रकट किया गया है कि संसारी जीवों का ही यहाँ सम्बन्ध है, मुक्त जीवों का नहीं । समनस्क और अमनस्क का भेद संसारी जीवों में ही होता है, मुक्त जीवों में नहीं । सिद्ध जीव नो अमनस्क कहलाते हैं । बारहवें गुणस्थानवी जीव संज्ञी ही मानेहैं । तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान वर्ती जीव और सिद्ध नो संज्ञी नो असंज्ञी ( नो समनस्क नो अमनस्क) कहे हैं । दूसरे स्थान के दूसरे उद्देशे में कहा है, पहलानरक, भवनपति वानव्यंतर वहाँ तक असंज्ञी तिर्यच पंचेन्द्रिय जीव उत्पन्न होते हैं, कुछ समय तक असंज्ञी रहते हैं फिर संज्ञी हो जाते हैं ॥सूत्र ३॥ मूलसूत्रम् संसारिणो मुत्ता य ॥४॥ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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