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________________ AAAAAAM तत्वार्थस्ने द्रव्यमनसा रहिताः केवलभावमनसैवोपयोगेण युक्ताः जीवाः अमनस्को उच्यन्ते । तथा चद्रव्यमनसः सद्भावाऽसद्भावाभ्यां संसारिणो जीवा द्विधा विभज्यन्ते समनस्काः-अमनस्काश्चेति । ____ अत्रेदमवधेयम्-मनोऽभिनिष्पत्त्यै वस्तुस्वरूपज्ञानार्थम् आत्मना गृहीतेन दलिकद्रव्यरूपमनःपर्याप्तिकरणविशेषेण, सर्वात्मप्रदेशवर्तिना जीवश्चिन्तनाथ यान् अनन्तप्रदेशस्वरूपान् मनोवर्गणा योग्यान् पुद्गलस्कन्धान् गृह्णाति । ते खलु तथाविधमनःपर्याप्तिकरणविशेषपरिगृहीताः पुद्गलस्कन्धा द्रव्यमनो व्यपदिश्यन्ते । भावमनस्तु—जीवस्योपयोगरूपः चित्तचेतना योगाध्यवसानाऽवधानस्वान्तमनस्कारात्मक परिणाम उच्यते. एतन् मनोरूपकरणं श्रुतज्ञानावरणक्षयोपशमजन्यतयाऽऽर्हद्भिरिष्यते । मनोयुक्तस्यैव जीवस्य धारणा भवति नाऽन्यस्येति भावः । तत्रोभयाभ्या मषि एवंविध द्रव्यमनोभावमनोभ्यां युक्ता जीवा समनस्का उच्यन्ते । तथाविध मनःपर्याप्तिकरणविशेषनिरपेक्षेण केवलमुपयोगमात्रभावमनसैव युक्ता जीवाः अमनस्का उच्यन्ते । एतेषां खलु अमनस्कानां जीवानां मनःपर्याप्तिकरण-निष्पत्त्या चेतना पटीयसी भवति । वृद्धस्य यष्ट्यवलम्बनवत्-द्रव्यमनोऽवष्टम्भेन संज्ञिनः स्पष्टतयाऽनुचिन्तनं कुर्वन्ति । इस प्रकार के द्रव्यमन और भावमन से युक्त जीव समनस्क कहलाते हैं। पूर्वोस्त द्रव्यमन से रहित, केवल भावमन से ही उपयोग मात्र से युक्त जीव अमनस्क कहलाते हैं । इस प्रकार द्रव्यमन के होने और न होने से संसारी जीव दो प्रकार के होते हैं-समनस्क और अमनस्क । __आशय यह है-मन की निष्पत्ति के लिए, वस्तु के स्वरूप का ज्ञान करने के लिए आत्मा के द्वारा गृहीत समस्त आत्मप्रदेशों में रहे हुए दलिकद्रव्य रूप मन पर्याप्ति करण के द्वारा जीव चिन्तन करने के लिए जिन अनन्तप्रदेशी मनोवर्गणा के योग्य पुद्गलस्कंधों को ग्रहण करता है, वे मनः पर्याप्ति रूप करणविशेष के द्वारा ग्रहण किये हुए पुद्गलस्कन्ध द्रव्य मन कहलाता हैं । चित्त, चेतना, योग अध्यवसान, अवधान स्वान्त, तथा मनस्कार रूप जीव का उपयोग भावमन कहलाता है। इस मन रूप करण को अरहन्त भगवान् श्रुत ज्ञानावरण के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाला मानते हैं । तात्पर्य यह है कि मन वाले जीव को ही धारणा ज्ञान होता है, अन्य को नहीं । इस प्रकार द्रव्यमन और भावमन से युक्त जीव ही समनस्क या संज्ञी कहलाते हैं। जो जीव मन पर्याप्ति रूप करण से रहित हैं किन्तु केवल उपयोग रूप भावमन से युक्त हैं, वे अमनस्क कहलाते हैं । इन अमन स्क जीवों की, मनः पर्याप्ति रूप करण की प्राप्ति होने पर चेतना अत्यन्त पटु होती है । जैसे वृद्ध पुरुष को लकड़ी का सहारा मिल जाय, उसी प्रकार द्रव्यमन की सहायता से संज्ञी जीव स्पष्ट रूप से चिन्तन करते हैं। શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧.
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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