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________________ wwwwwwvvvv ~ ~ दीपिकानियुक्तिश्च अ० ३ सू. ५ उत्तरप्रकृतिबन्धनिरूपणम् ३६५ शरीरनाम--२७ प्रत्येकशरीरनाम-२८ स्थिरनाम--२९ अस्थिरनाम--३० शुभनाम--३१ अशुभनाम--३२ सुभगनाम--३३ दुर्भगनाम--३४ सुस्वरनाम--३५ दुःस्वरनाम--३६ आदेयनाम--३७ अनादेयनाम--३८ यशःकीर्तिनाम--३९ अयशःकीर्तिनाम--६० निर्माणनाम--४१ तीर्थकरणाम-४२ __गोत्रं कर्म द्विविधं प्रज्ञप्तम्, उक्तञ्च-'गोए णं भंते ! कम्मे कइ विहे पण्णते ! गोयमा ? दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-उच्चागोए य, नीयागोए य, गोत्रं खलु भदन्त ! कर्म कतिविधं प्रज्ञप्तम्- गौतम-! द्विविधं प्रज्ञप्तम्, तद्यथा--उच्चगोत्रञ्च, नीचगोत्रञ्च । __ अन्तरायिकं पञ्चविधम् , उक्तञ्च--"अंतराए णं भंते ! कम्मे कइविहे पण्णते? गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-दाणंतराइए, लाभंतराइए, भोगंतराइए उवभोगंतराइए, वीरियंत राइए,-', इति अन्तरायः खलु भदन्त- कर्म कतिविधं प्रज्ञप्तम् ? गौतम ! पञ्चविषं प्रज्ञप्तम् , तद्यथा-दानन्तरायः, लाभान्तरायः, भोगान्तरायः, उपभोगान्तरायः, वीर्यान्तरायः इति ॥५॥ मूलसूत्रम्-"णाणावरणिज्ज पंचविहं मइआइ भेयओ-" ॥६॥ छाया-"ज्ञानावणीय पञ्चविधं मत्यादि मेदतः-" ॥६॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे ज्ञानावरणादिरूपाष्टविधमूलकर्मप्रकृतिबन्धस्य -उत्तरप्रकृतीनां पञ्चनवाद्यष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्त्वारिंशद्विपञ्चभेदाः प्रतिपादिताः-सम्प्रति-तान् भेदान् क्रमशः प्रतिपादयितुं प्रथमं ज्ञानावरणकर्मणः पञ्चभेदान् प्रतिपादयति--णाणावरणिज्जं इत्यादि ? ज्ञानावरणीयंनाम (२८) साधारण शरीर नाम (२७) प्रत्येक शरीर नाम (२९) स्थिर नाम (३०) अस्थिर नाम (३१) शुभनाम (३२) अशुभनाम ३३ सुभग नाम ३४ दुभंग नाम ३५ सुस्वर नाम ३६ दुःस्वर नाम ३७ आदेय नाम ३८ अनादेय नाम ३९ यशोकीर्ति नाम ४० अयशोकीर्ति नाम ४१ निर्माण नाम और ४२ तीर्थकर नाम । गोत्र कर्म दो प्रकार का है कहा भी है-- प्रश्न-भगवन् ! गोत्रकर्म कितने प्रकार का कहा है ? उत्तर-गौतम ! दो प्रकार का कहा है- उच्च गोत्र और नीच गोत्र । अन्तराय कर्म पाँच प्रकार का है। कहा भी हैप्रश्न-भगवन् ! अन्तराय कर्म कितने प्रकार का है ? उत्तर-गौतम ! पाँच प्रकार का है, यथा- १ दानान्तराय ·२ लाभान्तराय ३ भोगान्तराय ४ उपभोगान्तराय और ५ वीर्यान्तराय ॥५॥ मूलसूत्रार्थ-'णाणावरणिज्ज पंचविहं" इत्यादि सूत्र ॥६॥ ज्ञानावरणीय कर्म पाँच प्रकार का होता है मतिज्ञानवरणीय आदि भेद से ॥६॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में ज्ञानावरण आदि आठ मूल कर्म प्रकृति बन्ध की उत्तर प्रकृतियों के पाँच, नौ, दो अट्ठाईस, चार, दो, बयालीस, दो और पाँच भेद कहे गए हैं। શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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