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अथ तृतीयोध्यायः प्रारभ्यते मूलसूत्रम् --- "सकसायजीवस्स कम्मजोगा पोग्गलादाणं बंधो" ॥१॥ छाया-कषायजीवस्य कर्मयोग्यपुद्गलादान बन्धः ॥१॥
तत्त्वार्थदीपिका-नवविधेषु प्रथमसूत्रोक्ततत्त्वेषु-उत्तराध्ययनस्याऽष्टाविंशति अध्ययनानुसारं क्रमप्राप्तं तृतीयं बन्धतत्त्वं प्ररूपयितुमाह-"सकसायजीबस्स" इत्यादि ।
कषन्ति-दुर्गतौ जीवानाकृष्य पातयन्ति-इति कषायाः, कष्यन्ते पीड्यन्ते जीवा अनेनेति कषं-ज्ञानावरणीयाद्यष्टविधं कर्म, कषः-संसारो वा, तस्याऽऽयोलाभो यतस्ते कषायाः दुर्गतिपातलक्षणस्वभावाः क्रोध-मान-माया लोभास्तैः सह वर्तते इति सकषायस्तस्य सकषायस्य जीवस्य कर्मयोग्यानाम्-कर्मणो योग्यानां पुद्गलानामादानम्-उत्पादनं ग्रहणं कर्म कारणभावयोग्यानां पुद्गलानामविभागेनोपश्लेषो बन्ध इति व्यपदिश्यते ।
तथाच जीवकर्मणोरनादिः सम्बन्धो वर्तते तेन कर्मणो हेतो वः सकषायो भवति न कर्मरहितस्य जीवस्य कषायलेशः सम्भवति । अतएव-तयोरनादिसम्बन्धादेवाऽमूर्तोऽपि जीवो मूर्तेनाऽपि कर्मणा बद्धो वर्तते, आकाशस्य पुद्गलादिवत् । अन्यथा-बन्धस्यादिमत्त्वे सति-आत्य
तृतीय अध्याय सूत्रार्थ--"सकसाय जीवस्स" इत्यादि" ? कषाययुक्त जीव कर्मयोग पुद्गलों को ग्रहण करता है, वही बन्ध कहलाता है ॥१॥
तत्त्वार्थदीपिका-प्रथम सूत्र में कथित नौ तत्त्वों में से उत्तराध्ययन सूत्र के अठाईसवे अध्ययन के अनुसार क्रमप्राप्त तीसरे बन्धतत्त्व की प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं
जो जीवों को खींच कर दुर्गति में पटकते हैं, उन्हें कषाय कहते हैं अथवा जो जीवों को कषते हैं अर्थात् पीड़ा पहुँचाते हैं, उन्हें कषाय कहते हैं । कष का अर्थ है ज्ञानावरण आदि आठ प्रकार के कर्म अथवा संसार, उनका जिससे आय-लाभ हो अर्थात् जिसके कारण ज्ञानावरणीय आदि कर्मों का बंध हो या जन्म-मरण रूप संसार की प्राप्ति हो वह कषाय है क्रोध, मान, माया और लोभ यह चार कषाय हैं ।
कषाययुक्त जीव सकषाय कहलाता है । सकषाय जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को अर्थात् कार्मण वर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है अर्थात् अन्य प्रदेशों के साथ एकमेक कर लेता है, वह बन्ध कहलाता है।
जीव और कर्म का संबन्ध अनादि काल से चला आरहा है । कर्म के उदय के कारण जीव कषाययुक्त होता है। जब जीव कर्म से सर्वथा रहित हो जाता है तब कषाय का लेप का संभव नहीं है। अतएव जीव और कर्म के अनादि कालीन संबन्ध के कारण ही स्वभाव से अमूर्त जीव भी मूर्त कर्म के द्वारा बद्ध हो रहा है।
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧