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________________ तत्वार्थसूत्रे दृश्यन्ते, न तथा नामेन्द्रादौ, इत्यपि तयोर्भेदः । एवमन्यदपि वाच्यम् इति-तत्-उत्सूत्रप्ररूपण जनिताऽनन्तसंसारजनकं बोध्यम् । आगमे यदुक्तम्-"तहारूवाणं अरहंताणं नाम-गोय-सवणयाए महाफलं-" इति । तत्र नामनिक्षेपस्य विषयः कथमपि नास्ति "अरहंताणं भगवंताणं-" इत्युक्तया तस्मिन्नर्थे प्रयुक्तनाम्न एव श्रवणेन महाफलसंभवात् । गोपालदारकादौ प्रयुक्तस्य नाम्नः श्रवणेन तु-गोपालदारकाद्यर्थस्यैव बोधाद् आत्मपरिणामहेतुत्वं तस्य नास्तीति नाम निक्षेपस्थले भगवतोऽर्हतः स्मरणाऽसंभवः । तस्य भावशून्यत्वात् । भावजिनबोध स्य नाम्न एव श्रवणेन महाफलसंभवः । एवं स्थापनापि भावरूपार्थशून्या भवति, स्थापनायाः भावरूपार्थस्य सम्बन्धाऽभावात् । भावजिन शरीरवर्तिनी याऽऽकृतिरासीत् तस्या आश्रयाश्रयिभावरूपसम्बन्धो भावजिनेन सह तदानीं विद्यमान आसीत् । यथा-भावजिनं पश्यतस्तदानीं भावोल्लासोऽपि कस्यचित् संजातः तथा भक्त्या तामाकृति स्मरतो जनस्य भावोल्लासोऽपि संभवतु, तस्मिन् समये आकृते र्भावजिनेन सम्बन्धात् । स्थापनायास्तु-भावजिनेन संबन्धो नास्ति, तस्मात् कथं तावत् प्रतिमारूपा स्थापना भावजिनसम्बन्धाभावे प्राप्ति देखी जाती है, वैसा नाम -इन्द्र आदि में नहीं होता। यह भी नाम और स्थापना में भेद है। इसी प्रकार अन्य भेद भी समझ लेना चाहिए। यह कथन सूत्र विरुद्ध प्ररूपणा से उत्पन्न होने वाले अनन्त संसार का जनक है । आगम में जो कहा है कि तथारूप अरिहन्तों के नाम गोत्र के श्रवण से भी महान् फल की प्राप्ति होती है, यहाँ नामनिक्षेप का विषय किसी भी प्रकार नहीं है । 'अरिहन्त भगवन्तो के' ऐसा कहने से उसी अर्थ में प्रयुक्त नाम के श्रवण से ही महाफल हो सकता है । गोपाल के बालक आदि में प्रयुक्त नाम के श्रवण से तो गोपाल-बालक आदि वस्तु का ही बोध होता है वह आत्म परिणाम का हेतु नहीं है । नामनिक्षेप के स्थल में भगवान् अर्हन्त का स्मरण होना असंभव है, क्योंकि नामनिक्षेप भावशून्य होता है । भावजिन के बोधक नाम के श्रवण ही महान् फल होना संभव है इसी प्रकार स्थापना भी भावरूप अर्थ से शून्य होती है। स्थापना का भावरूप अर्थ से कोई सरोकार नहीं है । भावजिन के शरीर को जो आकृति थी, उसका आश्रय-आश्रयीभाव सम्बन्ध भावजिन के साथ उस समय विद्यामान था । जैसे-भावजिन को देखने वाले किसी पुरुष को उस समय भावोल्लास भी हुआ, वैसे ही भक्तिपूर्वक उस आकृति का स्मरण करने वाले पुरुष को भावोल्लास भी हो सकता है । क्योंकि उस समय उस आकृति का सम्बन्ध भावजिन के साथ होता है । मगर स्थापना का तो भाव, जिन के साथ संबंध नहीं होता । ऐसी स्थिति में प्रतिमा रूप स्थापना, भावजिन के साथ संबंध શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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