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________________ दीपिका निर्युक्तिश्च अ. १ प्रसिद्धम् ' यत्तु — नामस्थापना तलकृतसंस्तारकगतजीवमुनिशरीरवत् द्रव्य-भावनिक्षेप भेदाच्चतुर्विधो जीव इत्युक्तम्, तथा च - नामजीवः स्थापनाजीवः, द्रव्यजीव, भावजीवश्चेति । तत्र- नाम, संज्ञा कर्म इति समानार्थकम् चैतन्यवतोऽचेतनस्य वा द्रव्यस्य जीव इति यन्नामसंज्ञा क्रियते स नाम जीवो व्यपदिश्यते । यः पुनः काष्ठपुस्तकचित्र - कर्माक्षनिक्षेपादिषु जीवस्याकारः स्थाप्यते स स्थापनाजीवो व्यपदिश्यते । द्रव्यजीवो - भावजीवश्च प्रतिपादित एवेति । तत्र द्रव्य भावजीवयोरेव युक्तिसिद्धतया नामस्थापनाजीवयोः सर्वथा ज्ञानादिगुणरहिततयाऽनुपादेयतैव बोध्या । न तु कदाचित् तयोरुपादेयत्वम् तथाहि वस्तुनोऽभिधान रूपनामनिक्षेपः । आकृति विशेषरूपस्थापनानिक्षेपश्च तुच्छत्वान्न किञ्चिद् वस्तु ज्ञापकः संभवति । नवतत्वनिरूपणम् १३ तनिक्षेपयस्य ज्ञानक्रियादिगुणशून्यत्वाद् भावशून्यत्वाच्च । कस्यचिद्गोपालदारकस्य--इन्द्रादिनामकरणेऽपि इन्द्रशब्दानुगुणार्थक्रियाकारीत्वाऽभावात् एवं स्थापनायामपि यस्यां कयाञ्चित् सर्वथैव तदनुगुणार्थक्रियाकारित्वाभावः प्रत्यक्षसिद्धः । तथा च यत्तु कैश्चिदुक्तम्— यथा प्रतिमारूपस्थापना दर्शनाद् भावः समुल्लसति - न तथा नाममात्रात् इति - नाम-स्थापनयोर्भेदः । तथा च—इन्द्रादेः प्रतिमारूपस्थापनाया लोकस्योपचितेच्छा पूजाप्रवृत्ति समीहितलाभादयो कहलाता है, उस समय में वह केवल द्रव्य है । अथवा जैसे मुनिजीव का शरीर पृथिवी या शिला के संस्ताक पर रहा हुआ हो तो वह जीव या मुनि कहलाता है । 1 इस प्रकार जीव के चार प्रकार हैं --- नामजीव, स्थापनाजीव, द्रव्यजीव भावजीव । नाम का अर्थ है संज्ञा । किसी सचेतन अथवा अचेतन द्रव्य का जीव ऐसा नाम रख लिखा जाय तो वह द्रव्य नाम जीव कहलाता हैं । काष्ट, पुस्त, चित्र कर्माक्ष, निक्षेप आदि में जीव के आकार को स्थापित करना स्थापना जीव है । द्रव्य जीव और भावजीव पहले ही बतलाया जा चुका है । इनमें से द्रव्य जीव और भावजीव युक्ति से सिद्ध हैं ओर नामजीव तथा स्थापना जीव सव ज्ञानादि गुणों से रहित होने के कारण अनुपादेय, हैं वे कभी भी उपादेय नहीं हैं । वस्तु नाम रूप नामनिक्षेप और आकृतिविशेषरूप स्थापनानिक्षेप है । ये दोनो तुच्छ होने से किंचित् भी वस्तु के ज्ञापक नहीं है । ये दोनों निक्षेप ज्ञान क्रिया आदि गुणों से शून्य होने के कारण तथा भावशून्य होने के कारण..... . किसी गोपाल के बालक का इन्द्र आदि नाम रख दिया जाय तब भी वह इन्द्र शब्द के अनुरूप अर्थ क्रिया नहीं कर सकता । यही बात स्थापना निक्षेप में भी है । उसमें भी मूल वस्तु के अनुरूप अर्थक्रिया करने का सामर्थ्य नहीं होता यह प्रत्यक्ष से सिद्ध है । किसी का मत है - जैसे प्रतिमामें रूप स्थापना के देखने से भाव में उल्लास होता है वैसा नाम --- सुनने से उल्लास नहीं होता, यह नाम और स्थपना में भेद है । यही कारण है कि इन्द्र आदि की प्रतिभा रूप स्थापना में लोगों की उपयाचना की इच्छा, पूजा की प्रवृति और इच्छित की શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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