________________
१०
तत्वार्थसूत्रे
स पुनर्जीवो द्विविधः - संसारी मुक्तश्चति एवञ्च - तथाविधोपयोगलक्षणस्य जीवस्य ज्ञानरूपे दर्शनरूपेच द्विविधेऽपि व्यापारे चैतन्यरूपः स्वाभाविकः परिणामः समान एवोपजायते । जीवस्य ज्ञानदर्शनयोश्चैतन्यरूपेण स्वाभाविकपरिणामानुविधायिकत्वात् ।
तत्र - साकारं - ज्ञानं व्यवहियते, निराकारं दर्शनमुच्यते । स च स्वाभाविक चैतन्यरूपपरिणतिं प्राप्नुवत् ।
ज्ञानदर्शनरूपोपयोगः परस्परप्रदेशानां प्रदेशबन्धात् कर्मणा - "sयोगोलकवद" एकीभूतस्यामनो भेदप्रतिपत्तिहेतुर्भवतीति भावः ।
तत्र —फलप्रदानोन्मुखस्य समुदीर्णस्य कर्मपुद्गलावयवा जीवा जीवप्रदेशसंयोगं रागद्वेषादिना शिथिलीकृत्याऽन्तः प्रविशन्ति जीवकर्मणोः प्रदेशरूपावयवानां परस्परमिश्रणरूपप्रदेशबन्धेन जीवः कर्मपुद्गलेन सहैकीभूतो भवति । दुग्धोदकवद् भेदेन ज्ञातुं न शक्यते । तदानीं सम्यगुपयोगेन तु—अयं खलु जीवः स्वस्मिन् मिश्रितेभ्यः कर्मपुद्गलेभ्यः पार्थक्येन ज्ञातुं शक्यो भवति । तस्मिन्काले उपयोगावस्थायां कर्मपुद्गलानां चैतन्यरूपेण परिणत्यभावात् । इत्येवं रूपो भाव जीवो बोध्यः । यदा खलु अस्मिन् देहे स्थितो जीवो ज्ञानादिभिर्भावैर्विप्रयुक्तत्वेन विवक्ष्यते तदा - द्रव्यजीवो व्यपदिश्यते इति ॥ सू० २ ॥
इस प्रकार उपयोग लक्षण वाले जीव के ज्ञान रूप और दर्शनरूप दोनों प्रकार के व्यापार में चैतन्य रूप जो स्वाभाविक परिणाम है, वह तो समान ही होता है । जीव में ज्ञान या दर्शन रूप स्वाभावक चैतन्य परिणाम रहता ही है ।
यद्यपि कर्मपुद्गल आत्मप्रदेशों के साथ उसी प्रकार एकमेक हो जाते हैं जैसे तपाया हुआ लोहे का गोला और अग्नि, फिर भी जैसे उष्णता गुण के कारण अग्नि अलग और गुरुता गुण के कारण लोहे का गोला अलग पेहचान लिया जाता है, उसी प्रकार अपने असाधारण उपयोग गुण के कारण जीव अलग से पेहचान लिया जाता है ।
कार्मण वर्गणा के अनन्तानन्त प्रदेश योग और कषाय का निमित्त पाकर आत्मप्रदेशों के साथ बद्ध हो जाते हैं उस समय जीव के प्रदेशों और कर्मप्रदेशों का परस्पर में मिश्रण हो जाता है। जैसे दूध और पानी का मिश्रण होने पर दोनों एकमेक हो जाते है उसी प्रकार आत्मा और कर्म भी एकमेक हो रहे है — अनादिचाल से दोनों की मिश्रित स्थिति है, फिर भी उपयोग गुण के कारण जीवको पृथक् समझ लिया जाता क्योंकि उपयोग रूप परिणति जीव में ही होती है । कर्म भले जीव के साथ मिले हुए हों फिर भी उनका चैतन्य - उपयोग रूप परिणमन कदापि नहीं होता । यही भावजीव है जब इस देह में स्थित जीवकी ज्ञान आदि भावों से रहित रूप में विवक्षा की जाय तब वह द्रव्यजीव कहलाता हैं ॥ २ ॥
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧