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________________ दीषिकानिर्युक्तिश्च अ. १ नवत्वनिरूपणम् ९ यद्वा-- आत्मनः उप-समीपे योजनमुपयोगः, सामान्येन ज्ञानं दर्शनञ्च । तथा च – उभय निमित्तवशादुपपद्यमानश्चैतन्याऽनुविधायी परिणामः उपयोग इति फलितम् । एवंविध उपयोगो लक्षणं यस्य स उपयोगलक्षणो जीवः स उपयोगो द्विविधः ज्ञानोपयोगः दर्शनोपयोगश्च । तत्र - वस्तुनो विशेषपरिज्ञानं ज्ञानमुच्यते, विशेषं विहाय सामान्यावलोकनमात्रं दर्शनमुच्यते । तत्र - ज्ञानोपयोगोऽष्टविधः मतिज्ञान - श्रुतज्ञाना - ऽवधिज्ञान - मनः पर्ययज्ञान - केवलज्ञान - मत्यज्ञान - श्रुताज्ञान-विभङ्गज्ञानभेदात् । दर्शनोपयोगश्चतुर्विधः-चक्षुर्दर्शना-चक्षु दर्शना - sवधिदर्शन - केवलदर्शनभेदात् । यद्वा-उपयोगलक्षणः उपयोगो विवक्षितार्थनिश्चयरूपार्थपरिच्छेदः, स्वरूपव्यापारलक्षणम्असाधारणस्वरूपं यस्य स उपयोगलक्षणः प्रस्तुतार्थनिर्धारणव्यापारपरिणामो जीवो भावजीव इत्युच्यते । तथा च जीवस्तावद् द्विविधः भावजीवो द्रव्यजीवश्च । तत्र - औपशमिक -- क्षायिक - क्षायोपशमिक - औदयिक पारिणामिकभावयुक्तो भावजीवः उपयोगलक्षणो व्यपदिश्यते । द्रव्यजीवस्तु — गुणपर्यायवियुक्तः प्रज्ञाव्यवस्थापितोऽनादिपारिणामिकभावयुक्त उच्यते । करने के लिए कहते हैं - जीव उपयोग लक्षण वाला है । वस्तु के स्वरूप को जानने के लिए वस्तु के प्रति जो उपयुक्त अर्थात् प्रेरित किया जाय वह उपयोग कहा जाता है। इसका फलितार्थ यह हैं कि अन्तरंग और बहिरंग कारणों से उत्पन्न होने वाला चैतन्य रूप परिणाम उपयोग है । इस प्रकार का उपयोग जिसका लक्षण है वह जीव है उपयोग के दो भेद हैं-- ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग । सामान्य विशेष धर्मात्मक वस्तु के विशेष धर्म को जानने वाला ज्ञानोपयोग और सामान्य धर्म को विषय करने वाला दर्शनोपयोग कहलाता है। ज्ञानोपयोग आठ प्रकार का है- १. मतिज्ञान २. श्रुतज्ञान ३ अवधिज्ञान ४. मनः पर्ययज्ञान ५. केवलज्ञान ६. मत्यज्ञान ७ श्रुत - अज्ञान और ८. विभंगज्ञान | दर्शनोपयोग चार प्रकार का है - चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । अथवा -जीव उपयोग लक्षण वाला है, यहाँ उपयोग का तात्पर्य है - किसी पदार्थ को निश्चय रूप से जानना । यह उपयोग जिसका असाधारण गुण है, वह जीव भावजीव कहलाता है । जीव के दो भेद हैं—भावजीव और द्रव्यजीव । औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक, औदयिक और पारिणामिक भाव से युक्त जो भावजीव है, वह उपयोग लक्षण वाला कहलाता है । जो गुण और पर्याय से रहित हो, बुद्धि द्वारा कल्पित और अनादि पारिणामिक भाव से युक्त हो, वह द्रव्यजीव है । २ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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