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________________ ૨૭૮ तत्त्वार्थसूत्रे मवश्यमेव स्यात्, “सेयमुभयतः पाशारज्जु-" रितिन्यायापत्या संघातो दुर्घटः स्यात् । तस्मात् परमाणवः परस्परेणाऽनाश्लिष्टाः सन्त एव प्रत्यासत्तिशालिनो गगने कचाः इव समुदिता एव समुपलभ्यन्ते, न विदूरवर्त्तिन इति न कथमपि परमाणुद्वयसंश्लेषेण व्यणुकस्कन्धः सम्भवतीति चेदत्रोच्यते । परमाणूनां रूपरसगन्धस्पर्शात्मकत्वात् ते सतिघाः संयोगकाले सव्यवधाना न परस्परव्याप्त्या वर्तन्ते रूपाद्यवयवत्वात्. स्तम्भकुम्भादिवत्, तथाच परमाणुः स्यान्निरवयवः, स्यात्-सावयवो भवति, द्रव्यभावभेदात् । किञ्च-द्रव्यात्मना परमाणुरेकस्तिरोहितसकलभेदो वर्तते तत्र--कथं तावत् प्रयुज्यमानः सर्वशब्दोऽनेकवस्तुविषयोऽपि निरबशेषाभिधायित्वेन लोके प्रसिद्धत्वादसम्बदार्थो न स्यात्. कथं वा नानात्वेनाऽध्यवसितस्य वस्तुनः कस्यचिदेवाऽभिधाय्येकदेशशब्दो निर्भेदपरमाणुविषये प्रसज्यमानः साध्यमानं प्रतिपत्स्यते ? तस्मादुपर्युक्तविकल्पद्वयानुसारी वाक्यप्रयोगस्तावदत्यन्तप्रसिद्धलोकव्यवहारविमुखानां क्षुद्रसत्वानां शब्दार्थानभिज्ञानां नितान्तं जडिमाकान्तानामेव सम्भवति, न तु--प्रक्षावतां विदषामिति. जाने पर भी वह पहले की ही तरह एक परमाणु मात्र रहा। इसी प्रकार जब उसमें तीसरा परमाणु मिला तो भी वह परमाणु मात्र ही रहा । इस प्रकार अनन्त परमाणुओं के मिलने पर वह परमाणुमात्र ही रहेगा । इस दोष से बचने के लिए यदि परमाणुओं का संयोग एक देश से माना जाय तो परमाणु सावयव अर्थात् अवयय वाला मानना पड़ेगा । जब उसमें एक देश से संयोग होता है तो सावयव (अवयव सहित) हुए विना वह किस प्रकार रह सकता है ? इस प्रकार इधर कुआ उपर खाई की कहावत चरितार्थ होती है अर्थात् दोनों पक्षों में दोष आता है। ऐसी स्थिति में परमाणुओं का संयोग बन ही नहीं सकता। समाधान- परमाणु रूप रस, गंध और स्पर्श वाले होते हैं अतः संयोग के समय व्यवधानयुक्त परस्पर में व्याप्त होकर रहते हैं क्योंकि उनमें रूप आदि अवयव होते हैं, जैसे स्तम्भ कुम्भ आदि । इस प्रकार परमाणु कथंचित् निरवयव और कथंचित् सावयव भी है। द्रव्य से निरवयव और भाव से सावयव है । इसके अतिरिक्त द्रव्य की अपेक्षा जब परमाणु एक है और उसमें किसी प्रकार का भेद नहीं है तो उसके लिए सर्वात्मना कहकर सर्व शब्द का प्रयोग कैसे किया जा सकता है ? सर्व शब्द तो निरवशेष अनेक का वाचक है यह बात लोक में प्रसिद्ध है। अतएव सर्व शब्द का प्रयोग करना असम्भव है । इसी प्रकार नाना रूप में प्रसिद्ध वस्तु के किसी एक भाग का प्रतिपादक एकदेश शब्द भेद रहित परमाणु के विषय में कैसे प्रयुक्त किया जा सकता है ? इस कारण उपर्युक्त सर्वात्मना और एकदेशेन इन दोनों विकल्पों को प्रकट करने वाला वाक्यप्रयोग वही लोग कर सकते हैं जो अत्यन्त प्रसिद्ध लोकव्यवहार से भी विमुख हैं, क्षत हैं शब्द और अर्थ से अथवा शब्द के अर्थ से अनभिज्ञ हैं, और अत्यन्त ही जड़ है । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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