SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 295
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ २ सू. २१ पुद्गलभेदनिरूपणम् २७३ "अत्तादि अत्तमझं अत्तत्तं व इंदिये गेज्झं । जं दव्वं अविभागी तं परमाणु विजाणेहि ॥ १ ॥ इति "आत्मादि-आत्ममध्यम् आत्मान्तं नैव इन्द्रियग्राह्यम् । यव्यम्-अविभागि तं परमाणु विजानीहि ॥ १ ॥ इति एवं स्थूलभावेन ग्रहणनिक्षेपणादि व्यापारस्कन्धनात् स्कन्धा इति संज्ञायन्ते । क्वचित्पुनारूढौ सत्यां क्रियाया उपलक्षतया समाश्रयणाद् ग्रहणादिव्यापाराऽयोग्येष्वपि यणुकादिषु स्कन्ध इति संज्ञा प्रवर्तते, पुद्गलानामनन्तभेदत्वेऽपि परमाणुजात्या-स्कन्धजात्या च द्वैविध्यमापद्यमानस्तैः सर्वे गृह्यन्ते इति तज्जात्याधारानन्तभेदान् सूचियतुं बहुवचनमुक्तम् । तत्र-पुद्गलपरमाणव स्पर्शरसगन्धवर्णशालिनो भवन्ति । स्कन्धात्मकपुद्गलाः पुनः शब्दान्धकारोद्योतप्रभाछायाऽऽतपसूक्ष्मत्वबादरत्वसंस्थानभेदवन्तो भवन्ति, स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तश्च । एवञ्च "अणव: कायलिङ्गाः स्यु द्विस्पाः परिमण्डलाः। एकवर्णरसा नित्याः स्युरनित्याश्च पर्यायैः ॥१॥" इत्युक्तं सङ्गच्छते ॥ २१ ॥ देते हैं, परमाणु का अनुमान किया जाता है। इस कारण वह कार्यलिंग कहलाता है । स्कन्धपु द्गल सावयव बादर और प्रत्यक्ष दृश्य होता है । परमाणु अबद्ध होते हैं । स्कंध में आठों स्पर्श पाये जा सकते हैं और वे परमाणुओं के पिण्ड होने के कारण बद्ध ही होते हैं। सूक्ष्मपरिणाम वाले स्कंध चार स्पर्शवाले होते हैं और परम संहति से व्यवस्थित होते हैं इस प्रकार प्रदेशमात्रभावी स्पर्श आदि पर्यायों के उत्पत्तिसामर्थ्य से परमागम में जो कार्य रूप लिंग के द्वारा साधे जाते हैं -सरूप में प्रतिपादन किये जाते हैं-- वे अणु कहलाते हैं । परम अणु को परमाणु कहते हैं । अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण वह स्वयं ही अपनी आदि, स्वयं ही अपना मध्य और स्वयं ही अपना अन्त है। तात्पर्य यह है कि एक अप्रदेशी होने के कारण उसमें आदि मध्य और अन्त के विभाग नहीं होता। कहा भी है 'जो द्रव्य आदि मध्य और अन्त के विभाग से रहित है, जो इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है और जो निर्विभाग है, उसे परमाणु समझना चाहिए।' जो पुद्गल स्थूल होने के कारण ग्रहण किया जा सके, रक्खा जा सके, अन्यान्य व्यवहारों में आ सके वह स्कन्ध कहलाता है । यद्यपि द्वयणुक आदि कोई-कोई सूक्ष्म स्कन्ध ग्रहण निक्षेप आदि व्यवहारों के योग्य नहीं होते तथापि रूढ़ि के अनुसार वे भी स्कन्ध कहलाते हैं । पुद्गलों के यों तो अनन्त भेद हैं मगर परमाणु और स्कंध के भेद से वह दो प्रकार के ही हैं। इन दो भेदों में ही उन सब का समावेश हो जाता है । व्यक्तिशः वैसे ही परमाणु भी अनन्त हैं और स्कंध भी अनन्त हैं, यह सूचित करने के लिह वहुवचन का प्रयोग किया गया है । इनमें से पुद्गलपरमाणु स्पर्श, रस, गंध और वर्ण वाले होते हैं और स्कन्धपुद्गल शब्द, अन्धकार,, उद्योत, प्रभा, छाया, आतप, सूक्ष्मत्व, बादरत्व, संस्थान और भेद वाले होते हैं और શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy