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________________ २४६ तत्त्वार्थसूत्रे एवं क्रिया तावत्- परिस्पन्दस्वरूपा द्विविधा प्रज्ञप्ता, प्रायोगिकी-वैस्रसिकी च । तत्रशकटादीनां प्रायोगिकी क्रिया, मेधादीनां वैस्रसिकी च । द्विविधाया अपि तस्याः क्रियाया उपकारकतया कालो निमित्तं भवति । एवं-दूरदेशवर्तिनि परत्वस्य, समीपदेशवर्तिनि पुद्गलादिद्रव्ये, अपरत्वस्य च दैशिकस्य प्रसिद्धतया दैशिकपरत्वापात्वयोः सत्वेऽपि अतिसमीपदेशवर्तिनि अतिवृद्धे ज्येष्ठे पुरुषे परत्वयवहा. रस्य, अतिदूरदेशवर्तिनि अतिबाले कनिष्ठे पुरुषेऽपरत्वव्यवहारस्य कालकृतस्यैव जायमानत्वात् इमे द्वे अपि परत्वापरत्वे कालकृते अवगन्तव्ये । तथाच-पुद्गलादिद्रव्यपर्यायाणां वर्तनादिव्यवहारस्य कालकृतत्वात् काल एव तेषां निमित्तं भवतीति फलितम् । अथ वर्तनाग्रहणेनैव तद्भेदानां परिणामक्रियादीनामपि ग्रहणसम्भवेन परिइस तरह से जो काल का कथन किया जाता है, उससे मुख्य काल की सत्ता का अनुमान होता है, क्योंकि मुख्य की अपेक्षा से ही गौण व्यवहार होता है । इस प्रकार द्रव्य के पर्याय-परिणमन में अर्थात् एक पर्याय के विनाश होने पर दूसरी पर्याय की उत्पत्ति रूप परिणाम में, अपरिस्पन्द रूप परिणाम में, जीवके क्रोधादि रूप परिणाम में, पुद्गलके वर्ण गंध रस स्पर्श आदि रूप परिणाम में तथा धर्म अधर्म और आकाश के अगुरु लधु गुण को वृद्धि एवं हानि रूप परिणाम में काल उपकारक रूप से हेतु होता है। ___परिस्पन्द अर्थात् हलन-चलन रूप क्रिया दो प्रकार की कही गई है-प्रायोगिकी अर्थात् प्रयत्न जनित और वैस्रसिकी अर्थात् स्वाभाविकी शकट आदि की प्रायोगिकी और मेध आदि की वैनसिकी क्रिया होती है। दोनों प्रकार की क्रिया में काल निमित्त कारण है। परत्व और अपरत्व दो-दो प्रकार के हैं-देशकृत और कालकृत । देशकृत परत्व का अर्थ है दूरी और अपरत्व का अर्थ है सामीप्य । यह दोनों परस्पर सापेक्ष हैं । कालकृत परत्व का अभिप्राय है ज्येष्ठता और अपरत्व का अभिप्राय है कनिष्ठता । इस सूत्र में जो परत्व और अपरत्व का ग्रहण किया है, वह काल कृत समझने चाहिए । काल के आधार पर ही ज्येष्ठता-कनिष्ठता का व्यवहार होता है । अतएव परत्व और अपरत्व भी काल के उपकारक हैं । यह दोनों भी परस्पर सापेक्ष होते हैं। इसका फलितार्थ यह है कि पुद्गल आदि द्रव्य पर्यायों के वर्तन आदि का व्यवहार कालकृत होने से काल ही उन सब का निमित्त कारण है । शंका-वर्तना का ग्रहण करने से ही उसके भेद परिणाम, क्रिया आदि का भी ग्रहण हो सकता है । अतः परिणाम आदि का पृथक्ग्रहण करना व्यर्थ है । समाधान-काल दो प्रकार का है-परमार्थकाल और व्यवहार काल । इन दोनों प्रकार के कालों का ग्रहण करने के लिए परिणाम आदि को वर्त्तना से अलग कहा हैं। वर्त्तना लक्षण वाला काल परमार्थ काल है और परिणाम क्रिया आदि लक्ष्ण वाला काल व्यवहार काल कहलाता है। इस प्रकार अन्य पदार्थो के द्वारा परिच्छिन्न और अन्य पदार्थों के શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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