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दीपिकानियुक्तिश्च अ० २ सू. १७
जीवानामुपकारकत्वनिरूपणम् २४३ मुख्यउपकारो ज वकर्तृकः प्रतिपत्तव्यः । जीवा यथा--भूयस्त्वेनोपदेशद्वारा जीवानामुपकारकाभवन्ति । न तथा—धनादिभिर्जीवानुपकुर्वन्ति ।।
अथ जीवानामुपयोगलक्षणत्वस्य पूर्व प्रतिपादितत्वेन पुनरत्र लक्षणान्तरकरणं व्यर्थमिति चेन्मैवम् जीवानामुपयोगस्याऽन्तरङ्गलक्षणतया तेषां परस्परोपकारकत्वस्य बहिरङ्गलक्षणत्वेन प्रतिपादितत्वात् । एवं तहिं धर्मादीनामपि लक्षणान्तरं कथं न कृतम् इतिचेन्न । धर्माधर्माकाशानान्तु-गतिस्थित्यवगाहानामेव स्वाभाविकानामसाधारणलक्षणत्वात् । उक्तञ्च व्याख्याप्रज्ञप्तौ भगवतीसूत्रे१३ शतके ४ उद्देशके
जीवत्थिकाए णं भंते ! जीवाणं किं पवत्तइ ! गोयमा-? जीवत्थिकाए णं जीवे अणंताणं आभिणिवोहियनाणपज्जवाणं, अणंताणं सुयनाणपज्जवाणं, एवं जहा-बितियसए अस्थिकायउद्देसए जाव उवओगं गच्छइ, उवओगलक्खणे जीवे” इति ।
__ जीवास्तिकायेन भदन्त ! जीवानां किं प्रवर्तते ! गौतम ! जीवास्तिकायेन जीवोऽनन्तानाम् आभिनिबोधिकज्ञानपर्यवाणाम् , अनन्तानाम् श्रुतज्ञानपर्यवानाम् , एवं यथा-द्वितीयशते अस्तिकायउद्दशके यावदुपयोगं गच्छन्ति, उपयोगलक्षणः खलु जीव इति ।
"तत्रैव च भगवतीसूत्रे२ शतके १० उद्देशके उक्तम्- "जीवे णं अणंताणं आभिणिबोहियनाणपज्जवाणं एवं सुयनाणपज्जवाणं केवलनाणपज्जवाणं मइ अन्नाणपज्जवाणं का गौण उपकार प्रतिपादन किया गया है, यहाँ जीव के द्वारा होने वाला मुख्य उपकार समझना चाहिए । जीव जितना अधिक उपदेश द्वारा जीवों के उपकारक होते हैं, उतना धन आदि के द्वारा उपकार नहीं करते ।
शंका - पहले जीव का लक्षण उपयोग बतलाया जा चुका है, फिर यहाँ उसका दूसरा लक्षण बतलाना वृथा है ।
समाधान---उपयोग जीव का अन्तरंग लक्षण है । यहाँ जो परस्पर उपकार करना लक्षण कहा है, वह उनका बहिरंग लक्षण है।
शंका - ऐसा है तो धर्म आदि का भी दूसरा लक्षण क्यों नहीं बतलाया ?
समाधान-धर्म, अधर्म और आकाश का स्वाभाविक गति स्थिति, और अवगाह ही असाधारण लक्षण है । भगवती सूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र) शतक १३ उद्देशक ४ के ४८ वें सूत्र में कहा है
प्रश्न----भगवन् ! जीवास्तिकाय से जीवों को क्या होता है ?
उत्तर-गौतम ! जीवास्तिकाय से जीव अनन्त आभिनिबोधिकज्ञान की पर्यायों को, अनन्त श्रुतज्ञान की पर्यायों को प्रवृत्त करता है, इत्यादि जैसा द्वितीय शतक के अस्तिकाय उद्देशक में कहा है, वही यहाँ समझ लेना चाहिए । जीव उपयोग लक्षण वाला है ।
उसी भगवती सूत्र के द्वितीय शतक के दशम उद्देशक में कहा है
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧