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________________ तत्त्वार्थसूत्रे तत्त्वार्थनिर्युक्ति-पूर्व धर्माधर्माकाशपुद्गलानामुपकारकतया लक्षणं प्रतिपादितम्, तत्र जीवानां सर्वे धर्माधर्मादय उपकारका भवन्ति । एवं धर्माधर्माकाशाः पुद्गलद्रव्याणामुपकारकाः, आकाशं धर्माधर्मपुद्गलानामुपकारकम् इत्यादिरीत्या प्ररूपितम् सम्प्रति——जीवाः केषामुपकारका भवन्ति इति प्ररूपयितुमाह – “ परोप्पर निमित्ता जीवा" इति । जीवाः परस्परस्स्या - ऽन्योन्यस्योपकारकरणे निमित्तानि हेतवो भवन्ति । तथाच जीवानां परस्परस्य हिताऽहितोपदेशप्रतिषेधाभ्यामुपकारकत्वमवगन्तव्यम् एवञ्च — आपल्यां - वर्त्त - मानकाले वा यद- हितं योग्यं क्षमं न्याय्यं वा भवेत् तत्प्रतिपादनेन हितविपरीतस्या - हितस्य प्रतिषेधेन चोपकारको भवति परस्परम्, एकेन जीवेन द्वितीयस्य जीवस्य तेन तृतीयस्य जीवस्य तेन च चतुर्थस्येत्येवं परम्परया वा – उपकारको भवति, २४२ यथाच --- धर्माधर्माकाशकालपुद्गलानां स्वभावेनैवोपकारकता वर्तते न तथा जीवानामुप कारकता स्वभावेनैव, अपितु — अनुग्रहबुद्धयैवोपकारकत्वं तेषामवगन्तव्यम् । तथाच --- परस्परहिताहितोपदेशकरणेन जीवाजीवान्तरमनुगृह्णन्ति, नत्वेवं पुद्गलादयो भवन्ति । यद्वा -- जन्तोः सुखादीनां साधक एकैकोऽपि पुद्गलादिः सम्भवति, सर्वदैव द्विप्रभृतीनां समुपकारको भवति । नैककानाम् । तथाच - पूर्वं गौणउपकारः पुद्गलादीनां प्रतिपादितः, अत्रतु उन्हें चूर-चूर करेगा, दुःख उपजाएगा, स्मरण रखना कि तुझ अकेले को ही उसका फल भोगना पड़ेगा ||१७॥ तत्वार्थनियुक्ति – पहले धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल द्रव्य का उपकारक रूप में लक्षण कहा गया है । जीवों के लिए धर्म, अधर्म आदि सभी उपकारक होते हैं; धर्म अधर्म और आकाश पुद्गलों के उपकारक होते हैं, आकाश धर्म अधर्म और पुद्गलों का उपकारक है इत्यादि रूप से कथन किया गया है। अब जीव किसके उपकारक होते हैं, यह बतलाने के लिए कहते हैं - जीव परस्पर एक दूसरे का उपकार करने में निमित्त होते हैं । एक जीव दूसरे जीव को हित का उपदेश देकर तथा अहित से रोक कर उपकार करता है । इसी प्रकार भविष्यत् काल में अथवा वर्त्तमान काल में जो हित है, योग्य क्षेम या न्याय्य है, उसका प्रतिपादन करके तथा हित के विपरीत अहित का प्रतिषेध करके परस्पर उपकारक होते हैं । एक जीव दूसरे का दूसरा तीसरे का और तीसरा चौथे का उपकार करता है और इस प्रकार उपकार की परम्परा चालू रहती है । जैसे धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल द्रव्य में स्वभाव से ही उपकारकता है, वैसी जीवों में स्वभाव से उपकारकता नहीं है । जीवों की उपकारकता तो अनुग्रह बुद्धि से ही समझनी चाहिए । इस प्रकार परस्पर हिताहित का उपदेश करके जीव दूसरे जीव का अनुग्रह करते हैं पुद्गल आदि ऐसा नहीं कर सकते । अथवा जीव के सुख आदि का साधक एक-एक पुद्गल आदि हो सकता है । सदैव दो आदि का उपकारक होता है, एक-एक का नहीं । इस प्रकार पहले पुद्गल आदि શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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