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________________ तत्त्वार्थसूत्रे निर्युक्तिकमेतत् । नहि-निर्व्यापारं किमपि कारणं भवति । अपितु कुर्वदेव कारणं व्यपदि श्यते, धर्मादीनामपेक्षाकारणत्वञ्चैतावतैवोच्यते यत् धर्मादिद्रव्यगतक्रियापरिणाममपेक्षमाणं जीवपुद्गलादि गतिस्थित्यवगाह क्रियापरिणतिं पुष्णाति । ૨૨૮ अथैवं तर्हि निमित्तकारणाऽपेक्षाकारणयोर्न कश्चिद्विशेषः स्यादिति चेन्न, दण्डादिषु प्रायो गिकी वैनसिकी च क्रिया भवति, धर्माधर्माकाशेषु पुनर्वैस्त्र सिक्येव क्रियेति विशेषः । एवञ्च गत्यु - पकारो नावगाहलक्षणस्याऽऽकाशस्योपपद्यते । अपितु धर्मस्यैव गत्युपकारो दृष्टः । एवं स्थित्युपकारश्चाऽधर्मस्यैव नाऽवगाहलक्षणस्याऽऽकाशस्य । एव मवगाहोपकारश्चाकाशस्यैव, न तु धर्माधर्मयोरिति । द्रव्यस्य तावत् अवश्यमेव द्रव्यान्तराद विशेषः कश्चिद्गुणोऽभ्युपगन्तव्यः । धर्माधर्माकाशानां परस्परं द्रव्यान्तरत्वञ्च युक्तेरागमाद्वा प्रतिपत्तव्यम् । तथाचोक्तम् — आगमे “कइ णं भंते ! दव्वा पण्णत्ता ? गोयमा ! छ दव्वा पण्णत्ता तंजा धम्मथिका, अधम्मत्थिकाए, आगासत्थिकाए, पुग्गलत्थिकाए, जीवत्थिकाए, अद्धासमये" इति । कति खलु भदन्त ! द्रव्याणि प्रज्ञप्तानि ? गौतम ! षड् द्रव्याणि प्रज्ञतानि तद्यथा धर्मास्तिकायः, अधर्मास्तिकायः, आकाशोस्तिकायः, पुद्गलास्तिकायः जीवानिमित्त कारण ही होने चाहिए, अपेक्षा कारण नहीं । ऐसी स्थिति में अपेक्षा कारणता की ही हानि हो जाएगी, क्योंकि अपेक्षाकारण व्यापाररहित होता है । समाधान - ऐसा मत कहो । कोई भी कारण व्यापाररहित नहीं होता । व्यापार करने वालाही कारण कहा जा सकता है । धर्मादि को इसीलिए अपेक्षाकारण कहा जाता है कि जीवादि द्रव्य धर्मादिगत क्रियापरिणाम की अपेक्षा रखते हुए ही गति आदि क्रिया करते हैं । शंका- ऐसा है तो निमित्तकारण और अपेक्षाकारण में कोई भेद नहीं रहता । समाधान — दंड आदि में प्रायोगिकी और वैस्रसिकी दोनों प्रकार क्रिया होती है, धर्म, अधर्म और आकाश में वैस्रप्तिकी ही क्रिया होती है। दोनों में यह अन्तर है । इस प्रकार गति में सहायक होना अवगाह लक्षण वाले आकाश में घटित नहीं होता, किंतु गति में सहायक होना धर्मद्रव्य का ही उपकार है इसी प्रकार स्थिति में सहायक होना अधर्मद्रव्य का ही उपकार है, अवगाह लक्षण वाले आकाश का नहीं । अवगाह रूप उपकार आकाश का ही है, धर्म और धर्म द्रव्य का नहीं । 1 एक द्रव्य का दूसरे द्रव्य से भिन्न कोई विशिष्ट गुण अवश्य स्वीकार करना चाहिए । धर्म अधर्म और आकाश द्रव्य परस्पर भिन्न हैं, यह तथ्य युक्ति से अथवा आगम से समझ लेना चाहिए । आगम में कहा है- प्रश्न- भगवन् ! द्रव्य कितने कहे ? उत्तर -- गौतम ! छह द्रव्य कहे हैं, यथा- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और अद्धासमय । શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર ઃ ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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