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तत्त्वार्थसूत्रे मतां स्थिते रुपग्रहोऽधर्मस्योपकारः अवगाहिनां धर्माधर्मपुद्गलजीवानामवगाह आकाशस्योपकार इति पर्यवसितम् । ___एवञ्च—जीवपुद्गलाः क्रियावन्तो भवन्ति, यत्र च गतिर्भवति-तत्राऽवश्यमेव स्थितिरपि भवेत् । एवं येषां गतिस्थिती भवतस्तेषामवकाशोऽप्यावश्यकः । अथवा-गतिप्रयोजकस्य धर्मद्रव्यस्य सर्वदा सन्निहितत्वात् कथं तावदत्याहतागतिरेव सततं न भवति अविकलकारणकलापसान्निध्ये कायोत्पत्तेरवश्यं भावित्वात् । एवं सर्वदाऽधर्मद्रव्यस्यापि सन्निहितत्वात् कथं सदा स्थितिरेव न भवति ?
___ एवमवगाहविषयेऽपि शङ्का भवति ? तत्राह-स्वत एव गतिपरिणामो येषां द्रव्याणाम् एवं स्थितिपरिणामा-ऽवगाहपरिणामावपि येषां जीवपुद्गलादीनां स्वतः सिद्धौ तेषामुपग्राहकानि धर्माधर्माकाशानि भवन्ति । तानि च धर्मादीनि त्रीणि द्रव्याणि गतिस्थित्यवगाहेषु अपेक्षाकारकाणि सन्ति,, न तु-निवर्तकं कारणम् ।
निवर्तकं कारणन्तु-तदेव जीवद्रव्यं पुद्गलादिद्रव्यं वा गतिस्थित्यवगाहक्रियाविष्टं भवति । धर्माधर्माकाशानि तु–उपग्राहकानि । अनुपघातकानि-अनुग्राहकाणि भवन्तीति भावः । स्वभावत एव गतिस्थित्यवगाहपरिणतानि जीवपुद्गलादि द्रव्याणि धर्माऽधर्माऽऽकाशाः अनुगृह्णन्ति । यथाहिसरित्तडागहूदोदधिषु अवगाहित्वे सति स्वयमेव जिगमिषोर्मत्स्यस्याऽनुग्राहकं जलं निमित्ततयो पकारं करोति घटादिरूपेण परिणामिन्याः मृदो दण्डादिवत् इतिभावः । उक्तञ्चमान जीव पुद्गलों की गति में धर्मद्रव्य का स्थितिमान् जीव-पुद्गलों की स्थिति में अधर्मद्रव्य का और अवगाहनशील धर्म, अधर्म, पुद्गल और जीव द्रव्य के अवगाहन में आकाश का उपकार है, यह सिद्ध हुआ ।
जीव और पुद्गल द्रव्य ही गतिक्रिया वाले हैं और जहाँ गति होती है वहाँ स्थिति भी अवश्य होती है और जिनमें गति तथा स्थिति है, उनका अवकाश भी आवश्यक है।
शंका-गति सहायक धर्मद्रव्य जब सदैव विद्यमान रहता है । तो निरन्तर गति ही क्यों नहीं होती रहती ? क्योंकि कारण के होने पह कार्य की उत्पत्ति अवश्य देखी जाती है। इसी प्रकार सदा अधर्मद्रव्य सन्निहित रहने से सदैव स्थिति ही क्यों नहीं रहती ?
समाधान-धर्म और अधर्म द्रव्य गति और स्थिति के जनक नहीं, सहायक हैं। जब जीव और पुद्गल स्वयं गति करते हैं तब वे सहायक मात्र बन जाते हैं। धर्मद्रव्य किसी को बलात् चलाता नहीं और अधर्म द्रव्य किसी को बलात् ठहराता नहीं ।
___उपादान कारण तो जीव की गति में स्वयं पुद्गल ही है । धर्म और अधर्मद्रव्य तो सहायक मात्र हैं, अनुग्रहकारी हैं, निमित्त हैं। जैसे नदी, तालाव, हृद या समुद्रों में स्वयं ही गमन करने वाले मत्स्य के लिए जल सहायक हो जाता है, जल मत्स्य को चलाता नहीं है, इसी प्रकार धर्मास्तिकाय गतिक्रिया में सहायक होता है, प्रेरक नहीं । या जैसे घट आदि
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧