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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ २ सू. ११ धर्माऽधर्मास्तिकाययोः अवगाहनिरूपणम् २१३ भवति न तु-हदगृहादौ पुरुषघटादिवदिति कृत्स्नपदोपादानेन व्यवच्छिद्यते इति फलितम् । उक्तश्चोत्तराध्ययने ३६ अध्ययने ७ गाथायाम्--- धम्माधम्मे य दो चेव लोगमित्तावियाहिया ।' लोगालोगे य आगासे समए समयखेत्तिए ॥इति॥" "धर्माऽधौं च द्वौ चैव लोकमेत्यविगाहको-। लोकालोके च आकाशे समयः समयक्षेत्रिकः ॥११॥ इति. ॥११॥ मूलसूत्रम्-"पोग्गलाणं भयणा एगाइपएसेसु-" ॥१२॥ छाया- "पुद्गलानां भजना एकादिप्रदेशेषु-" ॥१२॥ तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्रे--धर्माधर्मयोलोकाकाशेऽवगाहप्रकारः प्रतिपादितः सम्प्रति-- पुद्गलानां लोकाकाशेऽवगाहप्रकारं प्रतिपादयितुमाह--"पोग्गलाणं भयणा एगाइपएसे-” इति । पुद्गलानां-परमाणुप्रभृतिपुद्गलद्रव्याणां भजनया-वैकल्पितया-एकादिप्रदेशेषु- अवगाहो भवति । तथाच-अप्रदेशसंख्येयाऽसंख्येयाऽनन्तप्रदेशानां पुद्गलानां द्रव्याणामेकादिष्वाकाशप्रदेशेषु भजनयाऽवगाहोऽवगन्तव्यः । तत्र-परमाणोरेकस्मिन्नेवाकाशप्रदेशे, द्वयणुकस्य तु-आकाशस्यैकस्मिन्-द्वयोश्च प्रदेशयोः' त्रसरेणोरेकस्मिन्-यो-स्त्रिषु च प्रदेशेषु, चतुरणुक-पञ्चाणुकादीनां मध्ये संख्येयाऽसंख्येयप्रदेशस्य -एकादिषु संख्येयेषु-असंख्येयेषु च लोकाकाशस्य प्रदेशेषु अवगाहो भवति । चतुरणुकादीनामेवानन्तप्रदेशस्य चाऽपि लोकाकाशस्यैकादिषु संख्येयेष्वसंख्येयेषु च प्रदेशेषु-अवगाहो भवतीति भावः ॥ १२ ॥ के समान किसी एक भाग में हों यह कृत्स्न शब्द से प्रकट किया गया है। उत्तराध्ययन के ३६ वें अध्ययन की गाथा ७ वीं में कहा है धर्म और अधर्म, ये दो द्रव्य लोकाकाश में ही कहे गए हैं । आकाश लोकआलोकव्यापी है और काल सिर्फ समयक्षेत्र में अर्थात् अढाई द्वीप में ही है ॥११॥ मूलसूत्रार्थ--"पोग्गलाणं भयणा" इत्यादि । सूत्र ॥१२॥ पुद्गलद्रव्य की एक प्रदेश आदि में भजना है ॥१२॥ तत्त्वार्थदीपिका- - पूर्वसूत्र में यह बतलाया जा चुका है कि धर्म और अधर्म की लोकाकाश में किस प्रकार अवगाहना है। अब लोकाकाश में पुद्गलों का अवगाह बतलाने के लिए कहते हैं । परमाणु आदि पुद्गल द्रव्यों का अवगाह लोकाकाश के एक आदि प्रदेशों में होता है । इस प्रकार अप्रदेशी परमाणु का, संख्यात, असंख्यात, तथा अनन्त प्रदेश वाले स्कन्ध द्रव्यों का एकादि आकाशप्रदेशों में भजना से अवगाह समझना चाहिए । इनमें से परमाणु का तो एक ही आकाशप्रदेश में अवगाह होता है, द्वयणुक का एक या दो प्रदेशों में, त्र्यणुक का एक, दो अथवा तीन प्रदेशो में, चतुरणुक तथा पंचाणुक आदि संख्यात-असंख्यात प्रदेशी १२॥ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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