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________________ तत्त्वार्थ सूत्रे अथ - एकनयप्ररूपणं न जैनदर्शनपरिपूर्णाय पर्याप्तं सम्भवति, द्रव्यार्थिक-पर्यायार्थिकनययोः प्रधानगुणभाव विवक्षावशाद् वस्तुतत्त्वस्य प्रतिपादनात् । अन्यथा वस्तुप्रज्ञापनमतिदुष्करं न भवेत् तस्माद् अभिन्नांशस्य वस्तुनो नरसिंहवत् नरकेसरिशब्दभेदेन प्रज्ञापना क्रियते, तत्र - द्रव्यार्थिकनयस्य प्राधान्यमाश्रित्य पर्यायार्थिकनयादेश्च गुणभावमाश्रित्य धर्मादिद्रव्याणां नित्यता प्रज्ञाप्यते । १८४ तथाच-द्रव्यार्थिकनयप्रज्ञाप्यं श्रौव्यांशमादाय धर्मादीनि द्रव्याणि नित्यानि उत्पाद - विनाशरहितानि ध्रुवाणि व्यपदिश्यन्ते । तथाच - धर्मादीनां सकलकलाऽविकारिणी सत्ताssख्यायते नित्यत्वकथनेनेति भावः । एवं धर्मादीनि सर्वद्रव्याणि अवस्थितानि भवन्ति, न हि कदाचित् तानि द्रव्याणि षट्त्वसंख्यां भूतार्थत्वं च परित्यजन्ति परित्यक्षन्ति वा, अवस्थितशब्दोपादानेन तद्भावाऽव्ययतया तेषां षट्त्वसंख्यारूपेयत्ता निर्धार्यते । तथाचषडेव द्रव्याणि भवन्ति, न न्यूनानि, नाऽप्यधिकानि वा इति संख्या नियमोऽभिप्रेतः । सर्बदा जगतः पञ्चास्तिकायात्मकत्वेन कालस्यैतत् पर्यायत्वेऽपि भिन्नतया प्रतीयमानत्वात् षडेव द्रव्याणि न तु पचेति भावः । तानि च धर्मादीनि अन्योऽन्यावबन्धितायां सत्यामपि धर्मादीनि न स्वतत्त्वं भूतार्थत्वरूपं वैशेशिकं लक्षणमतिक्रामन्ति । तच्च -भूतार्थत्वं धर्माधर्मयोर्गतिस्थित्युपग्रहकारित्वम् आकाशस्य - अवगाहदानव्यापारः, जीवानां स्वपरप्रकाशिचैतन्यपरिणामः, पुद्गलानाम चैतन्यशरीरवाङ्मनःप्राणापानसुखदुःखजीवितमरणोजैनदर्शन के अनुसार एकनय से वस्तु की प्ररूपणा करना पर्याप्त नहीं, द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक- दोनों में से एक को प्रधान और दूसरे को गौणरूप से विवक्षित करके ही वस्तुतत्त्व का प्रतिपादन किया जा सकता है। ऐसा किये बिना वस्तुस्वरूप की प्ररूपणा करना बहु कठिन है । अतएव यहाँ द्रव्यार्थिकनय को प्रधान और पर्यायार्थिकनय को गौण करके धर्म आदि द्रव्यों की नित्यता की गई है । द्रव्यार्थिक द्वारा प्रज्ञाप्य धौव्य अंश की अपेक्षा से धर्म आदि द्रव्य नित्य अर्थात् उत्पाद और विनाश से रहिम ध्रुव हैं । नित्य कहकर यह प्रकट किया गया है कि धर्म आदि द्रव्यों की सत्ता समस्त काल में अधिकारिणी है । इसी प्रकार धर्म आदि सबं द्रव्य अवस्थित हैं अर्थात् वे अपनी छह की संख्या को और भूतार्थता को न कभी भी त्यागते हैं और न कभी त्यागेंगे । 'अवस्थित' शब्द के ग्रहण से यह निर्धारित किया गया है कि ये द्रव्य अपने स्वरूप का परित्याग नहीं करते, अतः छह ही रहते हैं । न कभी कम होते हैं और न अधिक ही । जगत् सदा पंचास्तिकायात्मक है और काल पर्याय होने पर भी भिन्न रूपसे प्रतीत होता है, अतः छ ही द्रव्य हैं, पाँच नहीं । ये धर्म आदि द्रव्य आपस में मिलेजुले रहते हैं, फिर भी अपने अपने स्वरूप को और भूतार्थता को नहीं त्यगते हैं और न अपने विविध असाधारण लक्षण का उल्लंघन करते हैं । धर्मद्रव्य का स्वरूप गति में और अधर्मद्रव्य का स्वरूप स्थिति में निमित्त होता है । आकाश શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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