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दीपिकानियुक्तिश्च अ० २ सू ३ षडपि द्रव्याणि नित्यावस्थितानीति प्ररूपणम् १८३
न रूपं येषां तानि-अरूपाणि भवन्ति तत्र-रूपपदस्योपलक्षणत्वाद् रूप-रस-गन्ध-स्पर्श रहितानि भवन्ति इत्यर्थः । अरूपग्रहणात्-धर्माऽधर्माऽऽकाशकालजीवानाममूर्तत्वमाविष्क्रियते, तथाचपुद्गलव्यतिरिक्तानि धर्मादीनि पञ्चद्रव्याणि रूप-रस-गन्ध-स्पर्शपरिणामबहिर्वर्तित्वात्-अमूर्तानिव्यपदिश्यन्ते,-"पोग्गला रूविणो-" इति वक्ष्यमाणसूत्रानुसारात् पुदगलभिन्नान्येव धर्मादीनि द्रव्याणि अविद्यमानरूप-रसादीनि भवन्ति,
नित्यावस्थितानि तु सर्वाण्यपि द्रव्याणि भवन्ति । उक्तञ्च-नन्दिसूत्रे-"पंचत्थिकाए न कयाइ नासी, न कयाइ नत्थि, न कयाइ न भविस्सइ, भुविंच भवइ अ भविस्सइ अ धुवे नियए सासए अक्खए अव्वए अवट्टिए णिच्चे अरूवी-” इति ।
___ पञ्चास्तिकाया न कदाचित्- नासन् , न कदाचित् न सन्ति, न कदाचित्-न भविष्यन्ति अभूवंश्च- भवन्ति च भविष्यन्ति च ध्रुवा:- नियताः- शाश्वताः-अक्षयाः-अव्ययाः अवस्थिताःनित्याः- अरूपिणः ।
एवञ्च-एतानि पूर्वोक्तानि धर्मादीनि षडपि द्रव्याणि द्रव्यार्थिकनयेन नित्यानि भवन्ति न तुपर्यायार्थिकनयेन । द्रव्यार्थिकनयस्तावत्-ध्रौव्यमेव प्रतिपादयति, नोत्पाद-विनाशी, तस्माद्द्रव्यार्थिकनयेन धर्मादीनां नित्यत्वमवगन्तव्यम् । अन्यथा- द्रव्यार्थिकनयनिरपेक्षतया नित्यत्वस्वीकारे एकान्तवाद आपतेत् , एकान्तवादश्च-बहुविधदोषग्रस्तत्वादसमञ्जसः स्यात् ।
जिसमें रूप न हो उसे अरूपी कहते हैं । यहाँ रूप शब्द उपलक्षण है उससे रस गंध और स्पर्श का भी ग्रहण होता है। सूत्र में अरूप शब्द के ग्रहण से धर्म, अधर्म', आकाश, काल और जीव द्रव्य की अमूर्तता प्रकट की गई, है । अतः पुद्गल को छोड़ कर शेष पाँच धर्म आदि द्रव्य रूप, रस, गंध और स्पर्श से रहित होने के कारण अमूर्त कहलाते हैं। 'पोग्गला रूपिणो' इस आगे कहे जाने वाले सूत्र के अनुसार पुद्गल सिवाय धर्म आदि पाँच द्रव्य ही अरूपी है। मगर नित्य और अवस्थित तो पुद्गल द्रव्य भी है।
नन्दीसूत्र के सूत्र ५८ में कहा है-'पाँच अस्तिकाय कभी नहीं थे, ऐसा नहीं है; कभी नहीं हैं, ऐसा नही है, कभी नहीं होंगे, ऐसा भी नहीं है। सदा ये थे, हैं, और रहेंगे । वे ध्रुव हैं, नियत हैं, शाश्वत हैं, अक्षय हैं, अव्यय हैं, अवस्थित हैं, नित्य हैं और अरूपी हैं।
इस प्रकार ये धर्म आदि छहों द्रव्य द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से नित्य हैं, पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे नहीं। द्रव्यार्थिकनय वस्तु के ध्रौव्य का ही प्रतिपादन करता है, उत्पाद
और विनाश का नहीं । इस कारण द्रव्यार्थिकनय के अभिप्राय से ही धर्म आदि द्रव्य नित्य समझना चाहिए । द्रव्यार्थिकनय से निरपेक्ष रूप में नित्यता स्वीकार करने पर एकान्तवाद का प्रसंग होगा और एकान्तवाद अनेक प्रकार के दोषों से दूषित है।
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧