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________________ दीपिकानियुक्तिश्च अ०२ सू. १ अजीवतत्वनिरूपणम् १७३ कालो वर्तनालक्षणः, नूतनस्य-जीर्णकरणम् जीर्णस्य-क्षपणं वर्तना, तल्लक्षणो ज्येष्ठत्वकनिष्ठत्वादिव्यवहारहेतुभूतः कालः समयाऽऽवलिकादिरूपो बोध्यः । तथाचोक्तम् उत्तराध्ययने २८अष्टाविंशति अध्ययने-१०-गाथायाम्- "वत्तणा लक्षणो कालो" इति। वर्तनालक्षणः-वर्तन्ते भवन्ति जीवादयो भावास्तेन रूपेण तान् प्रति प्रयोजकत्वं वर्तना सैव लक्षणं-स्वरूपं यस्य स कालः इति । पूरणादपरस्थानस्य गलनाच्च पूर्वस्थानाद् पुद्गलाः गलनधर्माण इति कथ्यन्ते, पुरुषं वा गिलन्ति-पुरुषेण वा गीर्यन्ते इति पुद्गलाः, मिथ्यादर्शनादिहेतुवर्तिनं पुमांसं बध्नन्ति-वेष्टयन्तीति गिरेरर्थः । अथवा-कषाययोगशालिना पुरुषेण कर्मतया-आदीयन्ते इति पुद्गला इति । तथाचैते धर्मादयः पञ्चाऽजीवा व्यपदिश्यन्ते । यद्यपि-कालः अद्धारूपः तस्यैकसमयादिरूपस्याऽस्तिकायत्वं न सम्भवति, अत एव-जीवाऽस्तिकाय-धर्मास्तिकाया-ऽधर्मास्तिकाया-ऽऽकाशास्तिकायपुद्गलास्तिकायरूपपञ्चास्तिकायमध्ये कालस्य ग्रहणं न कृतम् तथापि-धर्मादीनामिव कालेऽपि-अजीवत्वस्य सत्वात्तस्याऽपि अजीवद्रव्यमध्ये ग्रहणं नाऽनुपपन्नमिति भावः ।। जीव-पुद्गल वहाँ जाते-ठहरते तो अलोकाकाश उन्हें अवगाहन देता; मगर वहाँ वे हैं नहीं । इस कारण अलोकाकाश में विद्यमान भी अवगाहन गुण प्रकट नहीं होता । ___ काल का लक्षण वर्त्तना है । नये को पुराना करना और पुराने का क्षय करना वर्तना है । काल द्रव्य के कारण ही ज्येष्ठता, कनिष्ठता आदि का व्यवहार होता है । वह काल समय आवलिका आदि रूप है। उत्तराध्ययन के २८वें अध्ययन की गाथा १०वीं में कहा है'काल वर्तना' लक्षण वाला है । जीवादि पदार्थ अमुक-अमुक रूप में वर्त्त रहे हैं उनके वर्त्तने में जो निमित्त कारण है, वह वर्त्तना है । यह वर्त्तना ही काल का लक्षण हे । जिसमें पूरण और गलन हो अर्थात् मिलना और विछुड़ना पाया जाय वह पुद्गल है । एक पुद्गल के सिवाय ऐसा कोई द्रव्य नहीं है जो बिखर सकता हो और मिल सकता हो । पुद्गल बिखर कर अनेक रूप बन सकता है और अनेक पुद्गल मिलकर एक स्कंध रूप परिणाम हो सकते हैं ! मगर पुद्गल के अतिरिक्त किसी अन्य द्रव्य में ऐसा स्वभाव नहीं है । इस कारण पूरण और गलन पुद्गल द्रव्य का असाधारण लक्षण है। __ अथवा पुरुष जो जो गिलन करते हैं---वशीभूत कर लेते हैं अथवा पुरुष के द्वारा जो ग्रहण किये जाते हैं-मिथ्यादर्शन आदि कारणों के वशवर्ती पुरुष को बद्ध करते-वेष्टित करते हैं अथवा कषाय और योंग वाले पुरुष के द्वारा कर्म रूप में जिन्हें ग्रहण किया जाता है, वे पुद्गल हैं। इस प्रकार ये धर्म आदि पाँच अजीव कहलाते हैं । अद्धा रूप काल एक समय रूप होने से अस्तिकाय नहीं हो सकता । अतः जीवास्तिकाय, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकशास्तिकाय और पुद्गगलास्तिकाय, इन पाँच अस्तियों શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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