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________________ तत्त्वार्थसूत्रे "प्रधानत्वं विधेर्यत्र प्रतिषेधोऽप्रधानता। पर्युदासः स विज्ञेयो यत्रोत्तरपदेन नन-॥१ इति एवमेव-- "अप्राधान्यं विधेयंत्र प्रतिषेधे प्रधानता। प्रसह्यप्रतिषेधोऽसौ क्रियया सह यत्र न२॥ इति च तत्र-जीवपुद्गलानां गत्युपग्रहकार्याऽनुमेयो धर्मः १ तेषामेव जीवपुद्गलानां स्थित्युपग्रहकार्याऽनुमेयोऽधर्मः २, नत्वत्र शुभाऽशुभफलादयौ धर्माधर्मों धर्माधर्मपदेन गृह्यते । प्रकृते द्रव्यप्रस्तावात्-द्रव्यरूपयोरेव धर्माऽधर्मयोर्ग्रहणेनाऽदृष्टरूपयोस्तयोर्गुणत्वेन ग्रहणाऽसम्भवात् । अवगाहोपकारकार्यानुमेयमाकाशम् । अथाऽलोकाकाशस्याऽवगाहोपकाराऽसम्भवेन कथमाकाशत्वव्यवहार इति चेत् अत्रोच्यते-अलोकाकाशे तत्त्वतो जीवपुद्गलानां गतिस्थितिहेतुभूतयोर्धर्माऽधर्मयोरभावेन तत्र विद्यमानस्याऽपि अवगाहनगुणस्य नाऽभिव्यक्तिर्भवति । एवञ्चाऽनवगाह्यत्वेऽपि अलोकाकाशमवकाशदानेन व्याप्रियेतैव, यदि तत्र-जीवपुद्गलानां गतिस्थितिहेतुभूतौ धर्माऽधर्मी भवेताम् । किन्तुन हि तत्र तौ विद्यते तदभावाच्चाऽलोकाकाशस्य विद्यमानोऽप्यवगाहनगुणो नाऽभिव्यज्यते इति । की प्रधानता होती है । तात्पर्य यह है कि धर्म आदि पाँच तत्त्व अस्तित्व की दृष्टि से जीव के समान ही हैं, मगर उनमें चैतन्य का सद्भाव नहीं है, इस कारण उन्हें अजीव कहा है । कहा भी है--'जिस नइसमास में विधि की प्रधानता और निषेध की अप्रधानता होती है, वह पर्युदासनजसमास कहलाता है।' इसी प्रकार—जिस नञसमास में विधि अप्रधान और निषेध प्रधान हो वह प्रसह्य(प्रसज्य) नसमास कहा जाता है। जिसमें क्रिया के साथ नञ् समासहोता है।) इनमें से जो जीवों और पुद्गलों की गति के उपकार करने के कार्य द्वारा अनुमेय हो अर्थात् जाना जाय, वह धर्मद्रव्य है । जीवों और पुद्गलों की स्थिति में उपग्रह करने से जिसका अनुमान किया जाता है, वह अधर्मद्रव्य है । यहाँ धर्म और अधर्म पदों से शुभ फल देने वाले और अशुभ फल देने वाले धर्म-अधर्म को नहीं समझना चाहिए । यहाँ द्रव्य का प्रकरण चल रहा है, अतएव द्रव्यरूप धर्म और अधर्म ही यहाँ विवक्षित हैं । अदृष्ट-पुण्य-पाप-रूप धर्म अधर्म विवक्षित नहीं हैं, क्योंकि वे द्रव्य नहीं, गुण हैं। अवगाहना रूप कार्य से जिसका अनुमान किया जाता है; वह आकाश है। यहाँ प्रश्न किया जा सकता है कि अलोकाकाश अवगाहना रूप उपकार नहीं करता है तो उसे आकाश कैसे कहा जा सकता है ? इसका उत्तर यह है कि अलोकाकाश में जीवों और पुद्गलों की गति और स्थिति के निमित्तभूत धर्म-अधर्म द्रव्य नहीं है । अतएव अलोकाकाश में अवगाहना गुण विद्यमान होने पर भी प्रकट नहीं होता । यदि वहाँ धर्म और अधर्म होते और શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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