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________________ १६२ तत्त्वार्यसूत्रे तत्त्वार्थदीपिका--पूर्व तावत् नारकदेवतिर्यङ्मनुष्यगतिरूपसंसारवतां जीवानां प्ररूपणं कृतम् । सम्प्रति-तेषामायुषः स्थितिं प्ररूपयितुमाह-“आऊ दुविहे, सोवक्कमे-निरुवक्कमे य" इति । आयुस्तावद् जीवनकालः द्विविधं भवति । तद्यथा-सोपक्रमम् निरुपक्रमञ्च । तत्र उपक्रममुपक्रमः-क्षयः, तेन सहितं सोपक्रमम् । अति दीर्घकालस्थितिकमप्यायुर्येन कारणविशेषेणाऽध्यवसानादिनाऽल्पकालस्थितिकमापद्यते स कारणकलापविशेष उपक्रमः स्वल्पकरणम्-प्रत्यासन्नीकरणकारणम् तेन तथाविधेनोपक्रमेण सहितं सोपक्रममायुष्यं भवति । यथा-विषाग्निजलादिमज्जनादिबाह्यस्योपघातनिमित्तस्य सान्निध्ये दीर्घायुरपि हस्वं भवति एतदेवाऽपवर्त्यमायुरित्युच्यते । निर्गत उपक्रमो यस्मात् तद् निरुपक्रममायुरुच्यते, अध्यवसानादिकारणकलापविशेषाभावात्-दीर्घ यदायुहे स्वं न भवति तद् निरुपक्रममुच्यते । तथा च अतिदीर्घकालस्थितिकमपि यद् आयु: येन-विषाग्निजलपाशबन्धनादिकारण कलापेन स्वपरिणतिविशेषात् अल्पकालस्थितिकमापाद्यते-तद्आयु: सोपक्रममपवर्त्यमुच्यते । यत्पुनरायुस्तथाविधकारणकलापेन दीर्घकालस्थितिकं खलु, अल्पकालस्थितिकं नाऽऽपाद्यते तदायुनिरुपक्रममुच्यते । तदेव अनपवर्त्यम [अकाटयं] उच्यते ॥४१॥ मूलसूत्रार्थ- "आऊ दुविहे" इत्यादि सू० ॥४१॥ आयु दो प्रकार की है-सोपक्रम और निरुपक्रम ॥४१॥ तत्त्वार्थदीपिका-- पहले नरकगति, देवगति, तिर्यंचगति और मनुष्यगति रूप संसार वाले जीवों का कथन किया है। अब उनकी आयु का निरूपण करने के लिए कहते हैं - आयु अर्थात् जीवन काल । वह दो प्रकार का है-सोपक्रम और निरुपक्रम जो आयु उपक्रम अर्थात् क्षय से युक्त हो वह सोपक्रम कहलाता है । दीर्घ काल पर्यन्त भोगने योग्य आयु अध्यवसान आदि जिस कारण से अल्पकाल में ही भोगने योग्य बन जाते हैं । उस कारण को उपक्रम कहते हैं । अर्थात् आयु के क्षय को समीप ले आने वाला कारण उपक्रम कहलाता है । जो आयु उपक्रम सहित हो वह सोपक्रम कहलाता है । बिष, अग्नि, जलमज्जन आदि उपघात के बाह्य कारण मिल जाने पर दीर्घायु भी अल्प हो जाती है, अर्थात् जो आयु शनैः शनैः दीर्घकाल में भोगा जाने वाला था, वह अल्पकाल में ही भोग लिया जाता है। इस प्रकार का आयु अपवर्त्य आयु कहलाता है । इसके विपरीत जो आयु उपक्रम से रहित हो वह निरुपक्रम कहलाता है। उसमें अध्यवसान आदि कारण नहीं होते । तात्पर्य यह है कि जो आयु जिस रूप में बाँधा हुआ है उसी रूप में भोगा जाय दीर्घ बंधा हो तो हस्व न हो, वह निरुपक्रम कहलाता है । ___ इस प्रकार जो अति दीर्घकालिक आयु विष, अग्नि, जल, पाशबन्धन आदि कारणों से अल्पकालिक हो जाती है, वह सोपक्रम अपवर्त्य आयु कहलाता है किन्तु पूर्वोक्त कारणों से जो दीर्घकालिक आयु अल्पकालिक नहीं होता, वह निरुपक्रम कहा जाता है। वह अपवर्त्य आयु भी कहलाता है ॥४१॥ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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