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________________ १३२ तत्त्वार्थसूत्रे ___ गौतम-? यस्य तैजसशरीरं तस्य कार्मणशरीरं नियमादस्ति यस्यापि कार्मणशरीरम् तस्यापि तैजसशरीरं नियमादस्ति. इति ॥३०॥ मूलसूत्रम् --"कम्मगं उवभोगवज्जिए" ॥३१॥ छाया-कार्मणमुपभोगवर्जितम्-" ॥३१॥ तत्त्वार्थदीपिका- पूर्वसूत्रे-औदारिकवैक्रियतैजसकार्मणभेदेन पञ्चविघं शरीरं प्ररूपित्तम् सम्प्रति-कार्मणप्रस्तावात् तद् विषयं किञ्चिद् वैशिष्टयं प्रतिपादयितुगाह "कम्मगं उपभोगवज्जिए-” इति । कार्मणम्-कर्मणा निर्वृत्तं निष्पन्नं पूर्वोक्तस्वरूपं कार्मणशरीरम् उपभोगवर्जितम् इन्द्रियप्रणालिकया शब्द--वर्ण-गन्धरस-स्पर्शादीनामुपलब्धिरूपयोगः, तद्वर्जितम् तदहितं वर्तते विग्रहगतौ कार्मणशरीरसत्वे भावेन्द्रियनिवृत्तिक्षयोपशमलब्धौ सत्यामपि द्रव्येन्द्रियनिकृत्यगावात् शब्दाधुपभोगाभावो भवति । तथाच--औदारिकादिशरीरसद्भावे सुखदुःखरूपविषयभोगः प्रत्यक्षसिद्धो वर्तते किन्तु-ययविग्रहगतौ कार्मणशरीरं भवति तदा नाऽनेन शरीरेण शब्दादिविषयोपभोगः सम्भवति । तस्मात्कार्मणशरीरं निरूपभोगं भवति ॥३१॥ मूलसूत्रम्---ओरालिए दुविहे संमुच्छिमे-गब्भवक्कंतिए य ॥३२॥ छाया -- "औदारिकं द्विविधम् , सम्मूच्छिम-गर्भव्युत्क्रान्तिक च-" ॥३२॥ उत्तर---गौतम ! जिसको तैजस शरीर होता है उसको कार्मण शरीर नियम से होता है और जिसको कार्मण शरीर होता है उसको तैजस शरीर नियम से होता है ॥३०॥ सूत्र- 'कम्मगं उवभोग वज्जिए' ॥३१॥ मूलसूत्रार्थ-कार्मण शरीर उपभोग से रहित है ॥३१॥ तत्त्वार्थदीपिका-पूर्व सूत्र में औदारिक, वैक्रिय, आहारफ, तैजस और कार्मण के मेद से पाँच प्रकार के शरीरों का निरूपण किया गया । अब कार्मण का प्रकरण होने से उसके विषय में कुछ विशिष्टता का प्रतिपादन करते हैं--- कर्म से उत्पन्न होने वाला; पूर्वोक्त स्वरूप वाला कार्मण शरीर उपभोग से रहित है। इन्द्रियों के द्वारा शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श आदि की उपलब्धि होता उपभोग कहलाता है। कार्मण शरीर इस उपभोग से रहित है। विग्रहगति में कार्मण शरीर के विद्यमान रहने पर भी और लब्धि रूप भावेन्द्रिय के होने पर भी द्रव्येन्द्रियों का अभाव होने से शब्द आदि भोगा उपमोग नहीं होता है। औदारिक आदि :शरीरों के सद्भाव में सुख-दुःख रूप विषयों का उपभोग तो प्रत्यक्ष से सद्ध है, किनतु जब विग्रह गति में कार्मण शरीर होता है तब इस शरीर से शब्द् आदि विषयों का उपभोग नहीं हो सकता । इस कारण कार्मण शरीर को उपभोग से रहित कहा गया है ॥३१॥ શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧
SR No.006385
Book TitleTattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages1032
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size60 MB
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